यह जुमला तब से चला आ रहा है जबसे गोरे लुटेरे आ कर देस पर काबिज हो गए थे. वही लाद कर गए हैं कि खबरदार, आगे जब हम अपने गुलामों के खेल करवाएंगे, तब तुम्हारे देस को भी इस में शामिल होना होगा. हमारे देस के कर्णधारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. हम पूरी खेलभावना के साथ इन 'गुलाममंडल" खेलों में शामिल होते आये. इस साल के लिए तो बीड़ा ही उठा लिया कि हम कराएंगे खेल! असल खेल तो इन खेलों के शुरू होने के बहुत पहले से चले और खेल खेल में आयकरदाताओं का बहुत सा पैसा बिना डकार लिए हजम कर लिया गया. यह दूसरी बात है कि खाने-खाने के इस खेल में खाने में लगे लोग भूल गए कि असल खेल भी कराने हैं, और इस चक्कर में लेट हो गए. लेटलतीफी का वह आलम था कि 'आवन लगे बरात तो ओटन लगे कपास' वाली कहावत भी फीकी पड़ गई.
तैयारी के दौरान एक और बड़ा सवाल था, सफ़ाई का. पहले चरण में तो जनता के पैसे पर हाथ साफ़ किया गया, बड़ी सफ़ाई के साथ. फिर आया सफ़ाई का दूसरा चरण. कहा जाता है कि देस में तो बड़ी गन्दगी है. अब हमें अगर अपना कचरा पहली सहूलियत वाली जगह पर फेंकने की आदत है तो किसी को परेशानी क्यों होती है? हमारा तो राष्ट्रीय कर्त्तव्य सा है कि घर को साफ़ रखिये, और अपना कचरा घर के ठीक सामने, या बगल के खाली प्लॉट में उलट दीजिए. ऐसा करने से अपना घर तो साफ़ हो जाता है. फिर पूरा देस पड़ा तो है कचरा डालने के लिए. और, कचरा अगर जहाँ-तहाँ नहीं डालेंगे तो इतने सारे कचरा बीनने वाले बच्चे बेकार नहीं हो जायेंगे? कितने लोगों की रोजी रोटी चलती है इस कचरे से! काहे को इतने सारे लोगों के पेट पर लात मारना? फिर हमारे देस की जनसंख्या भी तो इतनी है कि क्या करें?
जब खेलों की प्लानिंग होनी शुरू हुई तो बात आयी गन्दगी की समस्या की. अब क्या है कि हम देसियों को तो गन्दगी से कोई समस्या नहीं है, बल्कि हमें तो गन्दगी से प्रेम है. इतना प्रेम है कि अपने घर तक में, हर दीवाली हम सारे घर का कचरा निकालते हैं, और उसे धो-पोंछ कर वापस यथास्थान रख देते हैं. पर यहाँ गड़बड़ यह थी कि इन खेलों के दौरान बाहर से आने वाले गोरों को इस गन्दगी पर नाक-भौं सिकोड़ने और देस को एक और गाली दे कर मन में प्रसन्न होने का मौका मिल जाता. अब हम देसी सब कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं, यहाँ तक कि गन्दगी भी, पर अब इतने देसभक्त तो हम लोग हैं ही कि गोरों को और प्रफुल्लित होने का कोई कारण नहीं देना चाहेंगे.
तो सवाल था गन्दगी का. किसी जोधपुरीधारी को यह भान हुआ कि हमारा देस ('दिल्ली', क्योंकि ज्यादातर दिल्लीवालों और बड़े जोधपुरीधारियों के लिए 'भारत' और 'दिल्ली' पर्यायवाची हैं) तो बड़ी गंदी अवस्था में है. इस चिंता में जोधपुरीधारियों ने सफ़ारी वालों को भी लपेट लिया. अचानक अब सारा वातावरण गंदा हो गया और हुक्मरानों और बाबुओं को पूरी दिल्ली गंदी दिखने लगी. अब, गन्दगी का एक सबसे सरल और समय बचाऊ समाधान है जो हर देसी जानता है और अभिमन्यु की तरह शायद माँ के पेट से सीख कर अवतरित होता है. वह समाधान यह है कि कचरा समेट कर कालीन के नीचे सरका दिया जाए. इसी तर्ज़ पर दिल्ली के किसी सफ़ारी वाले बाबू ने सुझाया कि गन्दगी होती है दो कारणों से. एक तो भिखारियों के कारण, जो गंदे कपड़े या चीथड़े पहनते हैं और गंदे से दिखते ही हैं, और दूसरे, रेहड़ी-ठेले वालों के कारण. सड़कछाप लोग आ कर इन रेहड़ियों पर गंदी चीज़ें खाते हैं, और उनका गन्दा कचरा आस-पास फ़ेंक देते हैं. सबसे पहले तो दिल्ली के तमाम भिखारियों को चुन चुन कर शहरबदर दिया गया क्योंकि वे देस का 'इम्प्रेसन' खराब कर देते. ऐसा कर देने मात्र से भिखारियों की समस्या सुलझ गई. अरे हाँ, उन बड़े, सबसे गंदे भिखारियों को इससे बख्श दिया गया जो हर पांच साल में भीख मांगते हैं और दिल्ली की एक गोल इमारत पर काबिज़ रहते हैं.
उसके बाद बारी आई रेहड़ी-ठेले वालों की. इनको भी दिल्ली के बाहर किया गया, ताकि दिल्ली साफ़ रहे. गन्दगी का प्रमुख स्रोत, रेहड़ी वाले कम से कम इन खेलों तक के लिए दिल्ली से लतिया दिए गए. अब ये और बात है कि बहुत से गरीब छात्र (देसी छात्र सदा गरीब ही होते आये हैं, चाहे फटे कपड़ों में स्कूल जाने वाले और लैम्प-पोस्ट की रोशनी में पढ़ने वाले हों, या पिता को ए.टी.एम. मशीन मान कर डिज़ाइनर कपड़ों, लेटेस्ट मोबाइल और सबसे पावरफुल बाइक पर घूमने वाले क्यों न हों), मजदूर, निम्न-आय-वर्गी जन (पिज्जा हट और बरिस्ता अफोर्ड नहीं कर सकने वाले) भी इन्हीं रेहड़ी वालों की बदौलत कुछ खा पी पाते हैं. पर ऐसे लोगों की चिंता देस के सफारी वाले बाबू लोग करने लग गए तब तो हो गया काम. तो, हुआ यह कि भिखारी और रेहड़ी-खोमचे वाले दिल्ली-बदर कर दिए गए. दिल्ली शहर साफ़ हो गया, तो एक तरह से पूरा देश साफ़ हो गया. दिल्ली छोड़ और तो कहीं खेलों के दौरान आने वाले ये गोरे जाने वाले थे नहीं, इसलिए सफ़ारी वालों और जोधपुरी वालों की सफ़ाई की चिंता दूर हुई.
पर होनी और ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था. इतनी मेहनत की गई, इतनी सारी सफ़ाई कर ली गई, फिर भी, सरकारी और निजी टारगेट के चलते चालान करने पर उतारू ट्रैफिक पुलिसवाले (कोड का नाम: मामा) की तर्ज़ पर निरीक्षण के लिए देस आने वाले गोरों ने गन्दगी को ढूँढ ही निकाला. इतनी गन्दगी ढूँढ निकाली गई कि, जितनी थी नहीं, उतनी गन्दगी निकल आयी. जिस किसी जगह को देखा गया, वहीं पर गन्दगी निकल आई. कहा गया कि सब कुछ गन्दा है. सदा खबर की तलाश में रहने वाले सत्यान्वेषी चैनलों और कॉन्ट्रेक्ट न मिल पाने से खिसियाये कुछ अखबार वालों ने भी इन गोरों के सुर में सुर मिला कर "सुर बने हमारा" गाने वाले अंदाज़ में न केवल दिल्ली को, बल्कि पूरे देस को देसभक्ति के साथ, और पूरी दुनिया तक को ईमानदारी से बताया कि यहाँ तो सचमुच ही बड़ी गन्दगी है और गोरे खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों के स्वास्थ्य को जानलेवा खतरा है! पहले से मानो देस आने वाले गोरों को पड़ोस-प्रशिक्षित आतंकवादियों से जान का खतरा कम नहीं था कि अब गन्दगी से भी जान का खतरा हो गया.
ये और बात है कि सफ़ाई-पसंद गोरों और उनके उन खिलाडियों ने आज सफ़ाई बरकरार रखने की मुहिम और रोग-मुक्त रहने के चक्कर में खेल गाँव के टॉयलेट कॉन्डोम भर भर के जाम कर दिए हैं. (खबर पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें)
और इसका क्या करें कि कोई खुराफ़ाती देसी, सफ़ाईप्रेमी गोरों के देश से, बड़ी सफ़ाई से ये फोटुएं उतार लाया? आप भी देखिये, कितनी सफ़ाई है गोरों के इस देश में!
अब कोई क्या करे? सब गन्दा है पर धंधा है ये!!