Saturday, March 8, 2014

'आम' गंगा



सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरी फ़ितरत में है
मेरा ये मकसद कहाँ सूरत बदलनी चाहिये
इस तिजोरी न सही तो उस तिजोरी से सही
बस कहीं से चंदे की वो रकम मिलनी चाहिये
इतने दिन हुए कि मैं टी.वी. से गायब हो गया
अब कहीं कोई तो मेरी खबर छपनी चाहिये
एक दिन में मैंने सारी जांच कर के फ़ेंक दी
इसकी शाबाशी-लहर चहुँ-ओर चलनी चाहिए
इक हवाई यात्रा क्या की बवाल हो गया
कभी 'आम' को चार्टर सुविधा भी मिलनी चाहिए

Sunday, June 24, 2012

भाग भाग ........

पहले:
घपले-घोटाले भस्म हो गए
सारी फाइलें हुईं ख़ाक.....
भाग भाग मेरे नेता, मेरे नेता भाग भाग,
मंत्रालय में लगा आया आग
;oP
 
कालांतर  में:
संकट कटे, चैन कर अब
फिर से गा दरबारी राग
....
क्या बिगाड़ लेगा तेरा अब
“जांच” नाम का नाग
 
मना पार्टी, होली-दीवाली
गा "शॉर्ट-सर्किट" फाग,
मत भाग मेरे नेता, मेरे नेता मत भाग

अब तो धुल गए सारे दाग ...!!
 

Friday, June 22, 2012

घपला-एव-जयते?


कहा जाता है कि दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है. इस लिए मेरे वे भाई बहन जो ऐसी एन.जी.ओ. संस्थाएं चला रहे हैं जो निस्वार्थ भाव से जन-सेवा कर रही हैं, मुझे कृपया क्षमा करेंगे. विभिन्न गैर-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) चलानेवालों द्वारा ऐसे ऐसे जघन्य राष्ट्रद्रोही, एजेंडे के अनुरूप और घोर जन-विरोधी कार्य देख चुका हूँ कि अब किसी एन.जी.ओ. संस्था पर देर से और कठिनाई से ही विश्वास कर पाता हूँ. और जब किसी एन.जी.ओ. संस्था के साथ कोई बड़ा या विख्यात नाम जुड़ा देख लेता हूँ, तब तो संदेह दुगुना हो जाता है, क्योंकि बड़े घपले ऐसी ही संस्थाओं से जुड़े देखे हैं. क्या करूँ, बार बार विश्वास किया है और बार बार धोखा खाया है. 

रोहतक, हरियाणा में ‘भारत विकास संगठन’ नामक एन.जी.ओ. संस्था द्वारा संचालित ‘अपना घर’ नामक संरक्षण गृह में चल रहे व्यापक शोषण की कहानी [यहाँ भी] ने तो दिल दहला कर रख दिया है. और विडम्बना तो देखिये, इस एन.जी.ओ. संस्था की संचालिका जसवंती ये सारे आपराधिक कर्म भी करती रही और सरकार और अन्य संगठनों से धन के साथ पुरस्कार भी बटोरती रही. 

पिछले अठारह वर्षों में भारत में चल रही एन.जी.ओ. संस्थाओं को विभिन्न स्रोतों से दस हज़ार करोड रुपयों से भी अधिक की राशि मिली है. मुझे आश्चर्य यही रहा है कि यदि इतना पैसा भारत आया, तो दिखाई क्यों नहीं देता है? कई जानी-मानी एन.जी.ओ. संस्थाओं के खर्चों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि विगत कई वर्षों के आय-व्यय का लेखा-जोखा उन्होंने या तो कहीं दिखाया ही नहीं है, और यदि दिखाया है, तो उसमें ढेरों विसंगतियाँ हैं. खर्च के मदों को देखिये तो पता चलता है कि मिले हुए धन के मात्र २५% को ही समाज-सेवा (या समाज-सेवा के नाम पर जो किया जा रहा है) पर खर्च किया गया है. यदि ७५% धन संचालनकर्ता रख-रखाव पर हुआ भी दिखा रहे हैं, तब भी दस हज़ार करोड रुपयों का २५% भी बहुत सारा धन है, यदि ईमानदारी से समाज-सेवा पर खर्च हुआ हो. मुझे तो नहीं लगता है कि इतना पैसा भी इन संस्थाओं द्वारा खर्च किया गया है. ‘सूचना के अधिकार’ में एन.जी.ओ. संस्थाएं आती नहीं हैं इसलिए उनसे उनके विषय में किसी भी पूछ-ताछ कोई नहीं कर सकता है, खर्च का हिसाब देखने की बात तो भूल ही जाइए. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के स्वयम्भू नेता केजरीवाल, सिसोदिया, किरण बेदी, भूषण द्वय आदि जो खुद कई एन.जी.ओ. चलाते हैं, वे प्रधान-मंत्री तक को लोकपाल के अंदर लाने के लिए जोर लगा रहे हैं, पर कहते हैं कि एन.जी.ओ. संस्थाओं को लोकपाल के अंदर नहीं लाना है. क्यों भई? माजरा क्या है? क्यों नहीं?

ताजा मुहिम में आमिर खान जी अपने कार्यक्रम में कुछ एन.जी.ओ. संस्थाओं को पैसे दिलवा रहे हैं. यदि ये संस्थाएं ईमानदारी से अच्छा कार्य कर रही हैं, तब तो ठीक है, पर क्या जनता द्वारा दिया गया पैसा वहीं जा रहा है, जहाँ बताया गया है, और जहाँ जनता भेजना चाह रही है? मेरे कुछ मित्रों को लगता है कि मैं बेवजह आमिर और उन के द्वारा किये गए अच्छेऔर महान कार्यों का विरोध कर रहा हूँ. ऐसे मित्रों को मैंने हमेशा यही बताया है कि मैं केवल सवाल उठाता हूँ, और वह भी तभी जब मुझे कोई बात तर्क-संगत नहीं लगती है. यहाँ, इस पोस्ट में भी कुछ सवाल ही उठा रहा हूँ.

सत्यमेव जयते का मुख्य वेब पेज: इसी पन्ने में आगे ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट का उल्लेख है.


सत्यमेव जयते का वेब पेज: इस के हिसाब से २४ परगना, पश्चिम बंग का ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट इन के चौथे एपिसोड का एन.जी.ओ. पार्टनर है जिसे एस.एम्.एस. और रिलायंस फाउन्डेशन द्वारा दी हुई दान राशि प्रदान की जानी थी.

[चित्र स्पष्ट न हो तो यहाँ क्लिक करें, और उस के बाद नीचे जा कर संस्थाओं के नामों की सूची देखें]

सत्यमेव जयते का दूसरा वेब पेज: यह भी इसी बात की पुष्टि करता है कि जिसे चौथे एपिसोड से आये धन की सहायता दी जानी थी, वह ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट २४ परगना, पश्चिम बंग वाला ट्रस्ट ही था.


ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट का वेब पेज: इस के हिसाब से यह ट्रस्ट ह्यूमैनिटी ट्रस्ट के छत्र तले आता है.


ह्यूमैनिटी ट्रस्ट का वेब पेज: यह ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट की मातृ-संस्था है.



इस संस्था की गतिविधियों की रिपोर्ट के पन्ने पर कुछ भी नहीं मिला, हालांकि प्रथम पृष्ठ पर कुछ गतिविधियां अंकित हैं.


ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट और ह्यूमैनिटी ट्रस्ट के वेब पेजों को देखा जाए तो दोनों के पते भी एक ही हैं और फोन नंबर भी.


ह्यूमैनिटी ट्रस्ट का दूसरा वेब पेज: यह पन्ना ऐसा दावा करता है कि वे सत्यमेव-जयते या आमिर खान द्वारा बताई गयी वह संस्था नहीं हैं जिसे चौथे एपिसोड के हिसाब से एक्सिस बैंक द्वारा पैसा दिया जाना था.


एक्सिस बैंक का वेब पेज: इस के हिसाब से पैसा २४ परगना के उसी ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट को जाना था जिनके वेब-पेज उपरोक्त हैं.

[चित्र स्पष्ट न हो तो यहाँ क्लिक करें, और एपिसोड संख्या ४ के साथ बताई गयी संस्था की जानकारी को बड़ा कर के देखें]

एक्सिस बैंक का दूसरा वेब पेज: इस के हिसाब से पैसा ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट को दिया तो गया पर पता २४ परगना, पश्चिम बंग का न हो कर मुंबई में अंधेरी (पश्चिम) का एक पता है.


गूगल मैप से देखा हुआ वह पता जिसे एक्सिस बैंक ने पैसे दिए हैं: यहाँ मुझे कोई हस्पताल तो नहीं नज़र आ रहा है. [कोई मित्र आस-पास रहता हो तो कृपया बताए.] गूगल से ढूँढने पर इस पते के हिसाब से ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट नाम की किसी संस्था के बारे में कोई पता नहीं चलता है. 




सवाल एक: आमिर जी की तथाकथित रिसर्च टीम ने ऐसे किसी ट्रस्ट को आखिर ढूँढा कैसे, जिसे गूगल भी नहीं ढूंढ पा रहा?
पश्चिम बंग के ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट के वेब पेज के हिसाब से जो पैसा दिया जा रहा है वह इसी नाम का कोई दूसरा ट्रस्ट है.
यहाँ यह मान कर चलना होगा कि इस कथन का मतलब यही है कि उस दूसरे ट्रस्ट का पश्चिम बंग के ह्यूमैनिटी ट्रस्ट से किसी प्रकार का लेना-देना नहीं है, अन्यथा पश्चिम बंग के ह्यूमैनिटी ट्रस्ट के वेब पेज पर यह लिखा होता कि पैसा एक अन्य सहयोगी संस्था को गया है, सीधे उन्हें नहीं.

सवाल दो: यदि अंधेरी पश्चिम के इस पते पर किसी ट्रस्ट का ऑफिस है, तो भुगतान में “Payment to Shopping Mall” क्यों है? [चलिए, हो सकता है कि बैंक किसी को भी पैसों का भुगतान करते समय जो चालान छापता है, सभी में यही लिखा होता है, फिर भी शॉपिंग मॉल के नाम से संदेह तो हो ही सकता है.]

सवाल तीन: और जैसा कि पश्चिम बंग के ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट के वेब पेज पर लिखा है कि उनके ट्रस्ट को कोई पैसा आमिर या उनकी टीम या सत्यमेव-जयते द्वारा नहीं मिला, तो आमिर, उनकी टीम और एक्सिस बैंक अपनी वेब साईट पर पश्चिम बंग के ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट को पैसे देने की बात क्यों कर रहे हैं?

सवाल चार: आप के और आप जैसी बहुत सारी भोली भाली भावुक जनता की गाढ़ी कमाई लगा कर किये हुए लाखों एस.एम्.एस. का पैसा दरअसल गया कहाँ?

सबसे बड़ा सवाल: क्या पैसा असल में वहीं गया जहां आप भेजना चाह रहे थे? 

किसी को ठीक जानकारी हो तो कृपया यह गुत्थी सुलझाने में सहायता करें.

Sunday, June 17, 2012

अर्ध-सत्यमेव जयते? [भाग – 2]


दहेज पर एक बहुचर्चित मुक़दमे का निर्णय 'सत्यमेव जयते' के इस तीसरे एपिसोड के प्रसारित होने से कुछ महीने पहले ही आया था. आमिर ने इस मुक़दमे या इस के निर्णय पर भी अपने कार्यक्रम में कोई चर्चा नहीं की जबकि मेरे विचार में यह प्रासंगिक है. यह मुकदमा नॉएडा की निशा शर्मा ने अपने होने वाले पति मुनीश और उस के परिवार पर दायर किया था. निशा ने अपनी शादी के दिन अपने घर पहुँच चुकी बारात लौटा दी थी और मुनीश और उस के परिवार वालों पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने उस के पिता से दहेज की मांग की थी. निशा द्वारा इन आरोपों के साथ शिकायत करने पर मुनीश और उसके परिवार वाले गिरफ्तार कर लिए गए थे और उन्हें जेल में भी बहुत दिन बिताने पड़े. इस बीच दहेज के खिलाफ लड़ने वाली नायिका बता कर निशा की देश-विदेश में बड़ी प्रशंसा हुई, उसे पुरस्कार दिए गए [ अधिक जानकारी यहाँ] और वह ओपरा विनफ़्री के कार्यक्रम और कार्यक्रम “६० मिनट” [अधिक जानकारी यहाँ] तक में प्रस्तुत हुई. 

निशा से सम्बंधित खबरें २००३ में कुछ दिनों तक तो अखबारों के मुखपृष्ठ पर आती रहीं, फिर जब कुछ विरोधाभासी बातें सामने आने लगीं, तब मीडिया ने इस मामले से कन्नी काटना शुरू कर दिया. तब से अब, नौ वर्षों तक यह तथाकथित दहेज मुकदमा चलता रहा. इस साल, २०१२ की फरवरी में निचले कोर्ट ने केस को खारिज कर दिया और मुनीश, उनके परिवार और नवनीत राय (जिस ने निशा से पहले ही शादी कर लेने का दावा किया था) को बरी कर दिया. अधिक जानकारी के लिए ये लिंक देख लें.

यहाँ मैं न तो यह अनुमान लगाने का प्रयास करूँगा कि असल में क्या हुआ था, न किसी भी पक्ष को दोषी या निर्दोष करार देने का, और न ही माननीय अदालत के फैसले पर कोई भी टिप्पणी करने का. कुछ सवाल मेरे लिए अनुत्तरित हैं, बस कारणों सहित उन्हें प्रस्तुत करूँगा और इस पूरे वाकये से मिले सबकों को भी.

असल बात तो पता नहीं, पर यह तय है कि तब निशा की बड़ी प्रशंसा हुई थी और उन्हें आयरन लेडी तक का खिताब दिया गया, पर अब तय कर पाना कठिन है कि क्या वह सब सच था जो हमें मीडिया ने तब बताया? [अधिक जानकारी यहाँ]

यह भी तय है कि मुनीश और उन के परिवार को इन नौ वर्षों में बहुत कुछ सहना पड़ा. उन्हें जो झेलना पड़ा, वह तो सरल नहीं ही था, पर कुछ बातें तो विशेष रूप से शर्मनाक हैं और मुनीश और उन के परिवार के साथ स्पष्ट अन्याय हैं. मामले के अदालत में रहने के दौरान ही, कुछ महीनों के भीतर २००४ में एस.सी.ई.आर.टी. की कक्षा छठी की पुस्तक में दहेज की कुरीति के विषय में जानकारी देने के लिए एक अध्याय डाला गया. इस अध्याय में निशा शर्मा की कहानी बताई गयी जिस में निशा को नाम से नायिका बनाते हुए, और दलाल परिवार को पूरे नाम-पते के साथ खलनायक के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया. अब यह तो अति है कि मामला अदालत में विचाराधीन था पर कतिपय जिम्मेदार लोग निर्णय ले कर दलाल परिवार को दोषी और निशा को प्रेरणा-स्रोत नायिका मान भी चुके थे. यदि वास्तव में दलाल परिवार निर्दोष है, तब इस अध्याय को पुस्तक में डालने वाले शिक्षा जगत के महान निर्णयकर्ता अपनी करनी से हुए घोर अन्याय को अनकिया कैसे कर पाएंगे? [अधिक जानकारी यहाँ]  

और अमूल के बारे में क्या कहूँ? अमूल मक्खन के चुटकी-भरे मजेदार विज्ञापनों का मैं भी प्रशंसक रहा हूँ, पर यहाँ अमूल के विज्ञापन बनाने वाले एक बड़ी चूक करते हुए यही गलती दोहरा गए. मेरे विचार में यह उन्हें नहीं करना चाहिए था क्योंकि यदि दलाल परिवार निर्दोष है, तो यह उन के साथ बड़ा क्रूर मजाक है. [यहाँ से साभार]


नवनीत राय को कभी तो निशा के पिता एकतरफ़ा प्रेमी बताते हैं, तो कभी दलाल परिवार द्वारा खड़ा किया हुआ झूठा गवाह, तो कभी वे यह भी स्वीकार करते है कि पहले नवनीत और निशा में प्रेम-सम्बन्ध था जो टूट गया था. [अधिक जानकारी यहाँ] वे यह भी स्वीकार करते हैं कि पहले वे नवनीत के घर स्वयं निशा के पिता निशा की शादी का प्रस्ताव ले कर गए थे. पर बाद में उन्होंने विज्ञापन के जरिये दिल्ली के दलाल परिवार से निशा के विवाह की बात चलाई. यह बात भी सामने आयी है कि शर्मा परिवार को नवनीत द्वारा इस बहुचर्चित विवाह समारोह में विघ्न डाले जाने का अंदेशा था और उसे ऐसा करने से रोकने के लिए निशा के पिता पुलिस में शिकायत पहले ही कर चुके थे. असल बात क्या है, मुझे विस्मय है. क्या नवनीत का निशा से इस प्रकरण के पहले ही शादी कर लेने का दावा सही है? नहीं तो अदालत ने नवनीत को निशा के साथ अपनी शादी के झूठे शपथपत्र के आरोप से क्यों बरी कर दिया है? जब तक अदालत का विस्तृत आदेश पढ़ने को नहीं मिलेगा, ये सवाल शायद बने रहेंगे. या शायद उस के बाद भी!

मैं कुछ और कहूँ, इस से पहले इस पोस्ट में विख्यात समाज-शास्त्री मधु किश्वर जी ने इस विषय में बहुत पहले ही जो लिखा था, उस पर एक नज़र अवश्य डाल लें. [पूरा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें]

निशा का इस घटना के डेढ़ महीने के बाद रेडिफ़ को दिए एक साक्षात्कार में कहना था कि शादी के समय से पहले दलाल परिवार द्वारा दहेज की कोई मांग नहीं की गयी थी. यह साक्षात्कार इस घटना के बहुत समय बाद दिया गया था और निशा के पास यह पता करने के लिए पर्याप्त समय था कि शादी से पहले ऐसी मांग थी या नहीं. [स्रोत]

What prompted you to call the police -- they insulting your father or the dowry demand?
Both.
But in principle you and your parents had agreed to give them the dowry. The problem came only when they asked for more.
No, they had not demanded anything. My dad was giving everything on his own. It is called streedhan, not dowry. They demanded the money only at the last minute.

वहीं अब परिचर्चा में उनके पिता कहते सुने गए हैं कि शादी से पहले भी ऐसी मांग थी और इस के सबूत के तौर पर उनके पास फोन रिकार्डिंग हैं. क्या निशा और उन के पिता के कथनों में विरोधाभास नहीं है? और फिर यदि ऐसी रिकार्डिंग है, तो मुझे यह समझ नहीं आया कि अच्छे मन से अपनी बेटी की शादी कर रहे एक पिता को ऐसी रिकार्डिंग कर के रख लेने की बात कैसे सूझी? निश्चित रूप से इस रिकार्डिंग को कर के रख लेने के पीछे कोई उद्देश्य तो रहा ही होगा. क्या ऐसी रिकार्डिंग का बाद में उपयोग करने की, और दलाल परिवार के खिलाफ प्रमाण जुटा कर रखने की कोई योजना पहले से थी? थी तो किसलिए? क्या फंसाने के लिए? वर्ना रिकार्डिंग क्यों?

साक्षात्कार की इन्हीं पक्तियों से यह भी स्पष्ट है कि शर्मा परिवार शादी में जो १८ लाख का सामान अपनी और से देने को तैयार था उसे निशा या उसका परिवार दहेज नहीं मानते. इस के विषय में उन्होंने न कोई विरोध दर्ज किया न कोई मुकदमा. उनका कहना था कि उनका विरोध शादी के समय की गयी मांग से है जिसे वे दहेज मानते हैं. अपनी तरफ़ से निशा और उस के परिवार वाले जो १८ लाख का सामान देने को तैयार थे, उसे वे दहेज नहीं, अपनी मर्जी से दी जा रही भेंट कहते हैं. दहेज का तो लेना और देना, दोनों ही कानूनन जुर्म है. उनकी यह सोच क्या आश्चर्यजनक नहीं है? दूसरी ओर, जैसा कि मधु किश्वर जी ने कई बार कहा है - क्या दहेज देने के जुर्म में शर्मा परिवार भी क़ानून का अपराधी नहीं है? निशा शर्मा और उन के परिवार वाले “भेंट” में दिए जा रहे सामन को तो मर्जी से दिया बता सकते हैं, पर यह बात समझ नहीं आती कि हर भेंट डुप्लिकेट में थी, तो इसे कैसे मर्जी से दिया जाना कहा जा सकता है? खैर, ये सवाल तथ्यों के अभाव में केवल मेरे खोजी मन की उपज हैं और विस्मय पैदा करते हैं.

मधु जी का कहना है:

Both Nisha and her father repeatedly justified the Rs. 18 lakh expenditure on dowry by saying they were not against 'voluntary giving' but were opposed to 'dowry demands'. Nobody bothered to ask them by what stretch of imagination they could describe a whole range of expensive gadgets for the elder brother's family as 'voluntary gifts' for Nisha.
An unusual aspect of this conflict over dowry was that certain items like a home theatre system, refrigerator, air-conditioner and washing machine had been purchased in duplicate - one set for Nisha and her husband and a second set for the groom's elder brother and wife. The justification given for this second dowry was that the groom's mother had demanded these additional items so that the standard of living of the two brothers would not vary too much. Apparently the first brother's wife comes from a family of modest means. Therefore, Nisha's father was expected to bridge the gap in the standard of living of the two brothers. Whatever the truth of the matter on that front, neither Nisha nor her father hid the fact that the family had already spent Rs. 18 lakh on buying all these goods. Thus, even as per Nisha's version, the fight was over the alleged additional demand of Rs.12 lakh, not over the giving of dowry per se. Nisha's father is reported to have told the press that they had even tape-recorded earlier phone conversations with the groom's family after they had begun making more and more demands for dowry.
The bottom line is that Nisha, like millions of other people, believes that the voluntary giving of gifts and wealth - whatever be the amount - is perfectly legitimate, while anything demanded by the groom's family ought to be treated as an offence against the law if it exceeds the paying capacity of the bride's family or goes beyond their willingness to comply. If that is the social and legal consensus, if that is how law is actually enforced, if the dowry prohibition law comes into play not when dowry is being given or taken but only when the bride's family levels charges of coercion and blackmail, then logic demands that we scrap the anti-dowry law since extortion is in anyway a criminal offence under the Indian Penal Code (IPC).

विस्तृत जानकारी के लिए मधुजी का ‘मानुषी’ में लिखा हुआ लेख पढ़ें. मैंने इस पूरे घटनाक्रम से जो सबक लिए हैं, उन्हें आप के साथ साझा करना चाहूँगा.

सबक एक: याद रहे, विवाह सम्बंधित कानूनों में एक अजीब सा पेंच है. यदि लड़की के घर वाले अपनी ओर से "लड़की को" कुछ देना चाहें तो उसे स्त्री-धन करार दिया जा सकता है. दहेज की परिभाषा अलग है, और वह यह है कि माँगा जाए, तो दहेज है. पर बाद में यदि कोई शिकायत होती है, तो बहुधा देखा जाता है कि परिभाषाएँ गयीं एक तरफ़, और सब कुछ दहेज में गिना दिया जाता है. क़ानून के हिसाब से तो परिवार या मित्र भी जो वैवाहिक भेंट देते हैं, उसे भी दहेज में बिलकुल गिना जा सकता है. तो पहला सबक यह है कि विवाह से पहले, विवाह और वैवाहिक जीवन से सम्बंधित सभी कानूनों को बहुत अच्छी तरह जान-समझ कर अपना लोकाचार नियंत्रित करने की सख्त आवश्यकता है. थाने-कचहरी के चक्करों से बचने के लिए यह बहुत ही जरूरी है, क्योंकि आप चाहे निर्दोष हों, मुक़दमे का निर्णय आने में वर्षों बीत जायेंगे.

सबक दो: दहेज के लेन-देन से भी बचने की आवश्यकता है और ऐसी बातों की चर्चा से भी बचने की आवश्यकता है. आज के छोटे छोटे रिकार्डिंग उपकरणों के समय में कब कौन क्या रिकार्ड कर ले और किस मौके पर उस का ब्रम्हास्त्र की तरह उपयोग करे, कोई ठिकाना नहीं. आज हर किसी के लिए ऐसी परिस्थितियों से बच कर रहने की और खुद को सुरक्षित करते चलने की आवश्यकता है.

सबक तीन: पुनश्च - क़ानून समझ लें. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था कि यदि शादी ही नहीं हुई, तो इस मामले में आरोपियों पर ४९८-अ की धारा लगी कैसे? यह तो वह धारा है जो कि पीड़ित पत्नी अपने पति पर लगाया करती है. यदि बरात ही लौटा दी गयी, तो फिर न तो दूल्हा पति बना और न ही दुल्हन पत्नी बनी. फिर यह क़ानूनी धारा कैसे लगायी गयी? क्या कोई गलती हुई? जी नहीं, ध्यान रहे, विवाह संपन्न न भी हुआ हो, तो भी यह धारा लगाई जा सकती है. [देखें

समय खराब है, आज बहुत संभल कर चलने की बड़ी आवश्यकता है. आश्चर्य इस बात पर है, कि क्या इतने प्रचारित मामले भी झूठे हो सकते हैं? मिलती-जुलती समस्याओं वाले डेढ़-डेढ़ घंटों के दो पूरे एपिसोडों में कहीं भी आमिर खान जी ने ऐसे मामलों के विषय में तो बात उठाई तक नहीं है!! 

है न अर्धसत्य? कि नहीं??


.......जारी रहेगा 

Wednesday, May 23, 2012

अर्ध-सत्यमेव जयते?

चटपटे चटखारे की चटपटी पोस्टों से परे, इस बार कुछ गंभीर बातें कहना चाहूँगा. पिछले रविवार आमिर खान जी के टी.वी. कार्यक्रम “सत्यमेव-जयते” का तीसरा भाग देखा. कार्यक्रम के पहले दोनों भागों की ही तरह आमिर जी के मर्मस्पर्शी भाषण और दिल को छू लेने वाले गीत के साथ यह भाग (एपिसोड) शुरू हुआ. इस बार आमिर हमारे समाज में व्याप्त एक और कुरीति - दहेज (या जहेज) को ले कर उपस्थित हुए थे. पहले के दो भागों की तरह कुछ भुक्तभोगियों की कहानियाँ और आपबीतियाँ बताई गयीं. सन्देश यही देने की कोशिश की गयी कि दहेज समाज के नाम पर कलंक है और इस से जीवन बर्बाद और समाप्त भी हो जाते हैं. इस कुप्रथा का हमारे युवाओं को पुरजोर विरोध करना चाहिए और यह प्रण करना चाहिए कि वे स्वयं भी दहेज न तो लेंगे, न देंगे. मैं इस सन्देश का पुरजोर समर्थन करता हूँ. यह भी बता दूं कि मेरा अपना विवाह बिना किसी दान-दहेज के हुआ था. इसे मैं कोई विशेष या प्रचारित करने लायक बात नहीं मानता; केवल इसलिए बता रहा हूँ कि इस पोस्ट में, और अगली कुछ कड़ियों में मेरे विचारों को पढ़ने के बाद मेरी बातों को सही परिप्रेक्ष्य में, इस एक जानकारी के साथ संज्ञान में लिया जाए. मुझे इस बात का भी अहसास है कि एक पुत्री का पिता होने के क्या मायने होते हैं.

कार्यक्रम ठीक था, आवश्यक था, समाज पर एक कलंक को समाप्त करने की दिशा में एक सराहनीय प्रयास था, पर यह भी कहूँगा कि कार्यक्रम की कुछ बातें खटक गयीं. दिल्ली की एक पढ़ी लिखी युवती ने अपनी आपबीती में बताया कि उन्हें शादी के बाद उन के पति अमरीका ले गए और वहाँ भी उन्हें और उन के माता-पिता को दहेज के नाम पर सताते रहे. उन्होंने यह भी बताया कि उन के पति एक बार उन्हें घर में छोड़ गए और उन्हें चार दिनों तक खाना या पानी तक नसीब नहीं हुआ. और भी बहुत से अमानवीय अत्याचार हमारी इस बहन/बेटी ने दहेज के कारण सहे. इस उदाहरण से आमिर जी ने बताना चाहा कि दहेज की सबसे पहली ही मांग को सख्ती से ठुकरा देना चाहिए और ऐसी जगह रिश्ता ही नहीं करना चाहिए. बहुत सही, आवश्यक और सटीक सन्देश है. फिर भी, जितना कुछ उस एपिसोड में सामने आया, उस से कुछ बातें स्पष्ट नहीं हो पायीं और कुछ गले नहीं उतरी. मैं यह कतई नहीं कहना चाह रहा हूँ कि हमारी इन बहन/बेटी ने झूठ बोला. और यह भी कहूँगा कि यदि उन के साथ वह सब हुआ जो उन्होंने बताया, तो बहुत गलत हुआ, और ऐसा करने वाले कड़ी सजा के पात्र हैं. 
जो बातें कुछ समझ नहीं आयीं, उन में से मुख्य बात यह थी कि वे चार दिनों तक प्यासी रहीं क्योंकि उन के पति वाटर फ़िल्टर तक निकाल कर अपने साथ ले गए थे. आप को बता दूँ कि मैं स्वयं अमरीका में ही विगत चार वर्षों से नल से घर में प्रदाय किया जाने वाला साधारण पानी पी रहा हूँ. वैसे तो अमरीका में वाटर फ़िल्टर बेचने और उपयोग करने वाले बिना फ़िल्टर किया पानी पीने के पीछे बहुत से रोग भी गिना देते हैं, पर यदि वह सब हम मानने लगें तब तो दूसरे बहुत से अध्ययन यह भी बोल देते हैं कि कहीं का भी पानी पीने योग्य नहीं है, यहाँ तक कि फ़िल्टर का भी! और अमरीका में मुझ जैसे बहुत से लोग ऐसे हैं जो बिना कभी बीमार पड़े सीधे ही नल का पानी पीते आये हैं. वर्ना ऐसे तो देस में कहीं का भी, कैसा भी पानी नहीं पी सकेंगे. एक और बात यह भी थी कि वे चार दिनों तक भूखी रहीं. इस बात को अगर सच माना जाए तो इस के कुछ मायने निकलते हैं. 
एक तो हमारी इन बहन/बेटी ने यह भी बताया था कि उन के पास घर की चाबियाँ भी नहीं थीं इस लिए वे घर छोड़ कर नहीं निकल सकती थीं. यहाँ यह बता दूँ कि ऐसी किसी परिस्थिति में फँसने जैसी कोई बात नहीं है, और अपने मकान मालिक या कम्युनिटी के ऑफिस से आप बंद घर खुलवाने में सहायता ले सकते हैं क्योंकि आप के घर की एक चाबी उन के पास भी होती ही है. पर चलिए, कठिन तो है पर मान लेता हूँ कि उन्हें या तो इस का पता नहीं था या इस विषय में वे किसी से जानकारी नहीं ले पाईं. 
पैसों की समस्या के लिए छोटा मोटा उधार लिया जा सकता था.  यदि इस वजह से वे खाना लेने नहीं जा सकीं तो इसका मतलब यह है कि वे अड़ोस-पड़ोस में भी किसी को भी नहीं जानती या पहचानती थीं कि किसी से मदद ले सकें, किसी को बाजार भेज कर कुछ बुलवा सकें, या घर किसी के भरोसे छोड़ कर कुछ खरीदारी कर सकें. यह भी माना जा सकता है कि शहर/देश में और किसी से उनका कोई परिचय नहीं था, किसी के साथ उठना बैठना नहीं था, कोई मित्र नहीं था/थी और न तो उन के पास गाड़ी थी, न उसे चलाने का लाइसेंस था. पर यदि अंतिम उपाय के रूप में हमारी इन बहन/बेटी ने ‘महिला शरणस्थली’ को फोन किया, तो यह तय है कि वे इस व्यवस्था के विषय में जानती थीं. चलिए, ऐसा भी मान लेते हैं कि वे इस संस्था से तब तक नहीं संपर्क करना चाह रही थीं जब तक अति न हो जाए. 

किसी भी सभ्य देश की तरह अमरीका में भी महिलाओं और बच्चों (या कैसे भी नागरिकों) की सुरक्षा और सहायता के लिए संस्थाएं हैं और बहुत अच्छी व्यवस्थाएं हैं. साथ ही उल्लंघन करने वालों के लिए कड़े क़ानून हैं, शायद भारत से कहीं अधिक कड़े, और उनका सख्ती से पालन होता है. अब अमरीका आने वाले हम देसी और कोई बात शायद देर से जान या समझ पायें, पर यदि हम एक ध्येय ले कर जीविकोपार्जन या विद्यार्जन के लिए यहाँ आये हैं, तो यह बात सब से पहले समझते हैं कि यहाँ विदेशी हो कर रहते हुए यहाँ के क़ानून को अपने खिलाफ कुछ भी करने का यथासंभव कोई भी मौका हमें देने का कारण नहीं बनना है. यदि हमारी इन बहन/बेटी के पति महोदय ने वह सब किया जिसका अब वे आरोप लगा रही हैं, तो यह उन महोदय की मूर्खता की पराकाष्ठा का ही परिचय है. पर वे कितने भी लालची क्यों न हों, यदि उनकी पत्नी ने कहीं ९११, पुलिस या ऐसी किसी संस्था को मात्र एक शिकायती फोन कर दिया तो उन के साथ क्या क्या होगा, वे यह न जानते हों, ऐसा मैं नहीं मान सकता. और यदि ऐसा फोन हो गया तो वह उन के समाप्त होने की महज शुरुआत होगी, ऐसा वे नहीं समझते हों, इस पर विश्वास करना भी ज़रा मुश्किल है, खास तौर पर जब वे साल के ६५००० डॉलर (इस राशि के विषय में बात करते समय हर एपिसोड के करोड़ों लेने वाले आमिर ने जैसा विस्मय जाहिर किया, वह भी अजीब और नाटकीय लगा) कमाने वाले ऐसे अस्थायी दक्ष-कर्मी हैं. ऐसे दक्ष-कर्मियों का पूरा लेखा जोखा दोनों देशों की सरकारों के पास होता है, क्योंकि वे यहाँ किसी कबूतरबाजी के रास्ते चुपचाप नहीं घुस कर रह रहे होते हैं. हाँ, यह हो सकता है कि उन्हें भारतीय नागरिक होने के बावजूद भा.द.वि. की धारा ४९८-अ के विषय में जानकारी न हो, पर उन्हें यदि यह नहीं पता है कि भारत में दहेज प्रताड़ना के खिलाफ कोई न कोई क़ानून है, जो बड़ा सख्त है, तो वे दशकों से सोये रहे होंगे या किसी जंगल-पहाड़ पर ही रहते आये होंगे. और वे सदा अमरीका में ही भारतीय क़ानून से बच कर रहेंगे और उनके भारत लौटने की कोई सूरत ही नहीं हो सकती, ऐसा वे सोचते होंगे, यह मानना भी मुश्किल है. हम देसी अमरीका के अंदर घुसने, यहाँ से बाहर जाने, इस से सम्बंधित स्वीकृतियाँ और वैधता, पासपोर्ट रद्द होना, निर्वासन या देशनिकाला आदि क्या होता है, इतना तो कम से कम जानते ही हैं. 

इस के अलावा यह भी अजीब लगा कि भारतीयों की इतनी बड़ी संख्या में यहाँ होने के बाद भी, दिल्ली की हमारी इन पढ़ी-लिखी बहन/बेटी का अपने शहर या फिर पूरे अमरीका में कोई भी परिचित नहीं था जिस से वे अपनी कहानी कह सकतीं या सहायता मांग सकतीं. चलिए यह फिर भी माना जा सकता है कि ऐसा था. पर यह देश ऐसा भी अति-व्यकिवाद और उदासीनता या बेरुखी के चलन वाला नहीं है कि यह मालूम हो जाए कि सहायता मांगता हुआ कोई अनजान दिनों का भूखा है इस के बाद भी उसे भूख से मरने दिया जाए. यहाँ भी आप के पड़ोस में यदि कोई देसी नहीं, तो अमरीकी रहता (या रहती) हो, तो उस से साधारण शिष्टाचार के तहत भी कम से कम दुआ सलाम तो हो ही जाया करती है (यदि आप कम से कम इतना व्यवहार तो जानते-समझते हों). आश्चर्य है कि हमारी इन बहन/बेटी को महिला सहायता संस्था को फोन करने से पहले ऐसे किसी का भी ख्याल नहीं आया और वे चार दिनों तक भूखी-प्यासी रहीं. स्मरण रहे कि हम दिल्ली की एक पढ़ी-लिखी, समृद्ध परिवार की कन्या के विषय में बातें कर रहे हैं. यदि ऐसी भी कन्याएँ हैं, तो हमें सारे देश में अपनी बेटियों/बहनों को महत्वपूर्ण जानकारियाँ देने के विषय में अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है. मेरी एक मित्र दिल्ली की एक ऐसी ही अपनी मित्र के विषय में बता रही थीं जो पढ़ी-लिखी, कामकाजी होने के बाद भी वैवाहिक जीवन में दुखी होने की बात मित्रों को बता पाती हैं, पर अपने माता-पिता को मात्र इस डर से कुछ भी नहीं बता रही हैं कि कहीं उन्हें सदमा न पहुँचे. तो निष्कर्ष यही है कि, ऐसा हो तो सकता है. साथ ही हो सकता है कि सारी बातें सामने नहीं आ पाईं, और अधूरे प्रस्तुतीकरण के कारण बहुत से सवाल अनुत्तरित रह गए. हो सकता है कि वे बहुत समय यहाँ नहीं रहीं और यहाँ के रहन-सहन और व्यवस्था को समझ नहीं पायीं. या हो सकता है कि वे सहनशील होने के साथ साथ अत्यधिक संकोची, शर्मीली या डरी-सहमी रहती थीं. जो हो, मेरी पूरी सहानुभूति उनके साथ, यदि उन की सारी बातें सच हैं तो.

फिर से कह दूं, यह केवल वे बातें हैं जो मुझे सरलता से विश्वास कर लेने लायक नहीं लगी. यदि फिर भी सचमुच ऐसा हुआ है और उन की कही सारी बातें सही हैं, तो आमिर जी को कुछ सन्देश और भी देने चाहिए थे, ऐसा मैं स्वयं एक बेटी का बाप होने के नाते सोचता हूँ. इन में से एक यह है कि हर बेटी (विवाहित और अविवाहित, दोनों पर लागू) के बाप को, अपनी बेटी को परदेस रवाना करने से पहले उस के लिए विपत्ति में काम आने वाली ऐसी धनराशि का इंतज़ाम करना चाहिए, जिस के विषय में केवल उस की बेटी को पता हो, दामाद या ससुराल पक्ष को नहीं – और जिसे उस की बेटी अपने परिवार को बताए बिना उपयोग कर सके. यहाँ यह याद रहे कि छोटे मोटे कारणों से मनमुटाव कर के वापस भारत आ जाने वाली बहुओं की भी संख्या कुछ कम नहीं है, इसलिए मेरा ऊपर का सुझाव सिर्फ उन समझदार बेटियों के लिए था, जो सच में विदेश में पैसों के लिए मोहताज हो गयी हों और उस का उपयोग ही करने वाली हों, दुरूपयोग नहीं. इस के अलावा, संभव हो, तो विपत्ति आने पर किन किन से उस शहर/देश में संपर्क किया जा सकता है, ऐसे लोगों की सूची अपनी बेटी को अवश्य देनी चाहिए. ऐसे लोगों को भी यह जानकारी दे कर और उन से अनुमति ले कर रखनी चाहिए कि उन से सहायता संपर्क करने की नौबत आये, तो उन से संपर्क किया जायेगा (यदि कभी-कभार सामान्य सम्पर्क नहीं होने वाला हो तो).

इस के अलावा जो बात अजीब लगी वह थी “पकडुआ ब्याह” (या "चोरवा ब्याह") वाले मामले पर चर्चा की. आमिर जी ने यह दिखाने से भी पहले, कि यह एक विवाह-योग्य लड़के का अपहरण कर के किसी अनजान कन्या के साथ उसके जबरदस्ती विवाह कर देने का मामला है, हमें यह बताया कि यह विवाह कितना सफल है. इस के बाद असल कहानी बतायी गयी, एक आपबीती के रूप में, जिस में केवल यही सामने आया कि इस जबरन विवाह के सफल होने के पीछे का कारण यही था कि लड़के ने समझौता किया और लड़की को अपना लिया. जिस मजाकिया अंदाज़ में आमिर ने यह प्रस्तुत किया, उस से ऐसा लगा कि वे उनके अपने विचार में एक बढ़िया समाधान भी बता रहे थे और दहेज-लोलुप वर-पिताओं को चेतावनी भी दे रहे थे, हालांकि उन्होंने शब्दों के द्वारा यह नहीं कहा. आमिर जी जो भी कहें, मैं इसे मानवाधिकार का हनन और उस लड़के पर एक तरह का बलात्कार ही कहूँगा. मुझे यह उदाहरण एक ऐसा बलात्कार लगा, जिस की पैरवी यह कह कर की जा रही थी कि यदि आप बलात्कार का विरोध नहीं कर सकते, तो उस का मजा लीजिए ना. ऐसे पकडुआ विवाहों के विषय में मैं ने पहले भी बहुत सुना है. आमिर जी ने जो बात हमें यहाँ नहीं बताई, वह यह थी कि ऐसे पकडुआ ब्याहों को अंजाम देने के बाद अपहरणकर्ताओं द्वारा वर को सुहागरात के लिए जबरन नशे में लाने, और फिर उसे नामर्द बता कर नाराज कर के उकसाने जैसे कुछ मानसिक हथकंडे अपना कर शादी सम्पूर्ण करवा दी जाती है. इस के पश्चात सख्त शब्दों में वर और उस के घर वालों को चेतावनी भी दी जाती है, कि अब हम ने ब्याह करा दिया और ये दोनों पति-पत्नी हुए. यदि भविष्य में इस लड़की की तरफ़ से ज़रा भी शिकायत आयी, तो ४९८ तो बाद में लगेगा, हम पहले ही न पूरे परिवार को उड़ा देंगे. ऐसे विवाह सही अर्थों में समझौता भी नहीं हैं, बल्कि विवाह नाम की पवित्र संस्था का एक अलग तरह का मखौल-मात्र हैं, चाहे दहेज की समस्या का नाम दे कर इन्हें कितना भी जायज ठहराने का प्रयास आमिर जी जैसे बुद्धिजीवी कर लें. 

सब से बड़ी बात जो खटकी, और जिस पर मुझे घोर आपत्ति है, वह यह है कि आमिर जी ने दहेज क़ानून, घरेलू हिंसा क़ानून और ४९८-अ के व्यापक दुरुपयोगों पर एक शब्द तक नहीं कहा. क्या आप को पता है, कि वैवाहिक जीवन की समस्याएँ, जिन में दहेज और प्रताडना भी मुख्य कारण हो सकते हैं – के कारण प्रति वर्ष जितनी वधुओं के जीवन का अंत होता है, उस से दुगुनी संख्या उन पतियों की है, जो प्रतिवर्ष प्रताड़ना के झूठे मामलों में फंसाए जाने की वजह से आत्महत्या कर लेते हैं? इस विषय में और भी ऐसे आंकड़े हैं जो आपको विस्मित कर के रख देंगे. तो क्या आमिर जी किसी अगले एपिसोड में इस समस्या को ले कर भी प्रकट होंगे? या यह महिला संगठनों द्वारा किये जाते रहे और दिन-ब-दिन बढते एक ऐसे प्रचार/दुष्प्रचार की तरह हो कर रह जायेगा, जिस के हासिल में कुछ पत्नियों की सुरक्षा के साथ बहुत सारे पुरुषों और बहुत सारी महिलाओं के साथ झूठे प्रकरणों में फँस कर खत्म हो जाने और भारतीय परिवार के अंत की दिशा में जाने से अधिक कुछ नहीं है? 

मेरे विचार में आमिर के कार्यक्रम का सन्देश पूर्ण तो तब होता जब वे दहेज लेने और देने का विरोध करने के साथ साथ पत्नियों की सुरक्षा के लिए बने उत्पीड़न और दहेज संबंधी कानूनों के दुरूपयोग और झूठी शिकायत कर के ससुराल वालों को प्रताड़ित करने के चलन से भी तौबा करने की बात कहते. आशा करता हूँ कि इन १३ एपिसोडों में से एक ऐसा होगा जो, तीसरे एपिसोड के अर्ध-सत्य को पूर्ण करेगा, क्योंकि यह भी इतनी ही गंभीर समस्या बन गयी है. मुझे इंतज़ार रहेगा, और मैं इस विषय में अपनी अगली किसी पोस्ट में विस्तृत चर्चा का प्रयास करूँगा.

आवश्यकता केवल पत्नियों को सुरक्षित करने की नहीं है, पूरे परिवार को सुरक्षित करने की है, जिस में पति भी आते हैं और बच्चे भी. यदि हम स्वस्थ वातावरण में परिवार चलाने के प्रयासों के लिए प्रयत्न नहीं करेंगे, केवल पत्नियों को ही सदा सही और उनके कथन को परम सत्य मान कर चलेंगे और यही मानते हुए कानून बनायेंगे और चलाएंगे, तो याद रहे कि इस सब से एक पत्नी को बदला ले लेने की संतुष्टि शायद मिल जाती हो, और कुछ झूठे और लालची लोगों को विपरीत पक्ष से कानूनी फौजदारी के द्वारा मुफ्त की पैसा उगाही करने का मौका मिल जाता हो, पर एक परिवार के पति और बच्चे भी कलह की भेंट चढ़ते हैं और पूरा परिवार ऐसे तबाह हो जाता है कि उस का वापस बस पाना, सुखी रह पाना असंभव हो जाता है. एकतरफा प्रयासों से हमारा समाज नहीं बचेगा. अर्ध-सत्य से बचें, क्योंकि कहीं नहीं कहा गया है – अर्ध-सत्यमेव जयते!



..... जारी रहेगा [अगले भाग के लिए यहाँ क्लिक करें ]

Monday, May 2, 2011

तेरे बिन लादेन: ये गंगाराम की समझ में न आये!




कुछ बातें मेरी समझ में कभी नहीं आती हैं. जी, वैसे भी ज़रा कमजोर बुद्धि का हूँ और चाह कर भी समझदार लोगों की तरह नहीं सोच पाता. अभी कल की ही बात लें. खबर आयी कि बिन लादेन को मार गिराया गया. दस साल से ढूँढा जा रहा था, पर मिलता ही नहीं था. उसे मार गिराने की प्रक्रिया में बहुत सारे गधे, खच्चर, बकरियां और इंसान (इंसान अंत में, क्योंकि आज जान की कीमत के हिसाब से इंसान इसी जगह पर आता है) हमलों में शहीद हो गए, अरबों-खरबों डॉलर (जिनमें मेरे जैसे गरीबों के द्वारा पटाये गए टैक्स के डॉलर भी शामिल हैं) फूँक दिए गए, और बहुत से अमरीकी सैनिक और अफ़सरान घर-बार छोड़ कर दस साल से अफ़गानिस्तान की धूल फांक रहे थे. 

अंजामकार, कल मामला निबटा. बताया गया कि और कहीं नहीं, पाकिस्तान (हाँ जी, बिलकुल, यही अपना वाला पाकिस्तान) की राजधानी से महज ४० मील दूर के एक सैनिक शहर एबटाबाद में जनाब एक आलीशान बंगले में पता नहीं कब से रिहाइश फ़रमा रहे थे. उनके एक भरोसेमंद कासिद (डाकिये - जिन्हें डाकिया शब्द का अर्थ न पता हो, वे हाल के एक जगत-प्रसिद्ध कोर्ट-केस के बारे में पढ़ें) को ढूँढ निकला गया, उसका पीछा कर के जगह ढूंढी गई और अंदाज लगाया गया कि हो न हो, इसी आलीशान बंगले में जनाब बिन लादेन रहते होंगे. पक्का किसी को नहीं पता था, पर तर्क दिए गए कि इतनी बड़ी कोठी, इलाके के दूसरे घरों से तिगुनी बड़ी, पर रिहाइशी किसी से मिलते जुलते नहीं थे. कार से ही आते जाते थे, आमदनी का कोई साफ़  जरिया नहीं दिखता था पर पैसा और खर्च ढेर दिखते थे, औरतें पर्दा करती थीं और अरबी बोलती थीं, दीवालें १४ फीट ऊंची थीं और ऊपर कांटेदार तार लगे हुए थे, कचरा फेंका नहीं, जलाया जाता था. ऊपर से क्लोज़-सर्किट कैमरों के जरिये आसपास की आवाजाही पर नज़र रखी जाती थी. फिर यह भी था कि इतनी बड़ी कोठी, पर कोई फ़ोन या इंटरनेट कनेक्शन तक नहीं? आजकल तो छुटभैये तक ट्विटर-फेसबुक पर तशरीफ़ के टोकरे भर भर कर ले जा रहे हैं. लिहाजा, ऐसा तय मान लिया गया कि हो न हो, शिकार इसी मांद में छुपा हुआ है. बस फिर क्या था, बिलकुल हॉलीवुड की एक्शन फिल्मों की तर्ज पर कमांडो हेलीकॉप्टरों से वाया अफ़गानिस्तान, टू पाकिस्तान आकर  सीधे बंगले की छत पर उतरे. फिर,  धांय... धांय... धांय .... धड़ाम!  और मामला खत्म. लाश उठाई और रवानगी दर्ज की - उलटे पाँव वापस अफ़गानिस्तान. कुछ डी.एन.ए. टेस्ट आदि किये गए और पक्का कर लिया गया कि शेर ही मारा है, गीदड़ नहीं. फिर लाश को चुपके से ले जा कर अरब सागर में कहीं दफ़न कर दिया गया.  ख़याल रहे, यह सब बताया गया.


मुझे याद आयी हाल ही में देखी हुई फिल्म 'तेरे बिन लादेन' की. कहानी अपने पाकिस्तान की ही बताई गई है. उसमें कुछ लोग मिल कर बिन लादेन की शक्ल वाले एक आम इंसान, नूरा का वीडियो बना कर उसके जरिये अमीर बनने की कोशिश करते हैं. एक डायलॉग था - "यार, गोरे इसे तोरा-बोरा में ढूँढ रहे हैं और यह उमरकोट में मुर्गे पाल रहा है!" और देखिये तो, क्या बात है कि असली लादेन मिला आखिर पाकिस्तान में! ख़याल रहे, ऐसा बताया गया. और फिर, फिल्म के अंत में जब नकली बिन लादेन पकड़ा जाता है और भेद खुल जाता है, तब अमरीकी भी इस झूठ में शामिल हो कर दुनिया को बेवकूफ़ ही बनाते हैं. 


अब मैं ये बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि कल वाली कहानी में भी ऐसा ही हुआ है, और मनाता हूँ कि असली लादेन की बजाय कोई बेचारा नूरा चाचा ही सच में न हलाक हो गया हो. पर कुछ बातें मेरी समझ से बाहर हैं. 


हमारे विदेश मंत्री जी ने भी "हम न कहते थे कि वहीं छुपा बैठा है, ठीक हमारे दाऊद की तरह" वाले अंदाज में अपना बयान भी दर्ज किया और चिंता भी जता दी. अब भला ये भी कोई कहने की बात है कि पाकिस्तान के तार कहाँ कहाँ नहीं जुड़े हुए हैं? वैसे यदि अमरीका का मामला न होता और अरबों डॉलर दांव पर न लगे होते, पाकिस्तान हमेशा की तरह बेशक कह देता कि मरने वाला लादेन नहीं, और कोई हमशक्ल था. कारण यह है कि पाकिस्तान दहशतगर्दी (आतंकवाद) का दुश्मन है, ऐन अमरीका की तरह, और हो ही नहीं सकता कि बिन लादेन पाकिस्तान में पनाह पाए. ऐसा कुछ वैसे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री मदाम हिलेरी की पिछली यात्रा के दौरान कह भी चुके हैं कि लादेन और दुनिया में कहीं भी हो, कम से कम पाकिस्तान में तो नहीं है. अब कल के किस्से के बाद पाकिस्तान क्या कहे? शायद - "फंस गए रे ओबामा"! खबर यह भी है कि पाकिस्तानी तालिबान ने लादेन की मौत के बदले पाकिस्तान में कहर बरपाने की बात की है.  भगवान न करे ऐसा हो, पर यह सच हुआ तो पाकिस्तान तो "न खुदा ही मिला न वसाल-ए-सनम" की तर्ज पर दोनों तरफ से गया. दो नावों में पैर रखे रहना कोई सरल काम नहीं है.


अब अपनी छोटी बुद्धि की बात पर आता हूँ. मेरी समझ में ये नहीं आया कि दहशतगर्दी के सख्त खिलाफ रहने वाले पाकिस्तान में, एक सैनिक शहर में ऐसी कोई कांटेदार तारों और कैमरों वाली बहुत बड़ी कोठी बनी (चलिए, माना कि वह कोठी आई.एस.आई. की पनाहगाह नहीं थी), और फिर भी पाकिस्तानी जासूसों को सालोंसाल भनक तक न लगी कि उस कोठी के बाशिंदे हैं कौन? ऐसा तब जबकि बिलाल शहर में उस कोठी के अड़ोसी-पड़ोसी तक समझ गए थे कि माजरा कुछ गड़बड़ है और इस कोठी से दूर रहना बेहतर है. ऐसा भी सुनने में आया है कि अड़ोसी-पड़ोसी तक इस सैनिक कार्रवाई  और हैलीकॉप्टर की उड़ानों के दौरान इस बारे में ट्वीट करने में मशगूल थे पर शहर के तमाम सैनिक और अफ़सर आँख-कान मूंदकर बैठे रहे, और कोई पता करने भी न निकला कि हो क्या रहा है? गूगल मैप देखने से ही समझ में आ रहा है कि यह करोड़ों की हवेली पाकिस्तानी मिलिटरी अकादमी से बमुश्किल आधे मील की दूरी पर है, और शहर में ढेरों पाकिस्तानी रेजीमेंट तैनात हैं. फिर भी ४० मिनट तक की गोलीबारी के दौरान कोई मौके पर नहीं पहुंचा? तो क्या एबटाबाद में मौजूद सैनिक अफ़सरान पहले ही समझ गए थे कि भेद खुल गया है और दूर रहने में ही भलाई है?


मेरी समझ में यह भी नहीं आया कि लाश को ऐसे ऐसे गुपचुप दरिया में गर्क करने की क्या जरूरत थी? और यह दरिया-दफ़न तो इस्लाम के हिसाब से शायद ठीक नहीं है, फिर क्यों? कुछ समझदार लोगों ने कहा कि उसे तो १९९४ में ही देश-बदर कर दिया गया था, और कहाँ दफ़नाते? फिर यह भी है कि २४ घंटों के अंदर उसे दफ़नाना इस्लाम के लिहाज से जरूरी था. वैसे भी कहीं उसका मजार बना कर जिहादियों को यह कहने का मौका कोई नहीं देना चाहता था कि "शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले...". 


यह भी समझ में नहीं आया कि कोई फ़ोटो या वीडियो क्यों नहीं है जिससे साबित हो कि मरने वाला लादेन ही था? इंटरनेट पर बहुत ढूँढा, पर जो मिला, उससे कुछ साबित होता न दिखा. फिर एक वीभत्स सी तस्वीर  देखी, मरे हुए लादेन के चेहरे की. बाद में पता चला कि किसी मनचले ने फोटोशॉप के जरिये भाषण देते लादेन की तस्वीर को उस वीभत्स फ़ोटो का रूप दे दिया था. तब समझदार लोग फिर मेरी मदद को आये. उन्होंने बतलाया कि तुम कुछ समझते नहीं हो. देखो, ऐसे फ़ोटो-वीडियो से जिहादी भड़क जायेंगे और जो जिहादी नहीं हैं, वे भी जिहादी बन जायेंगे, इसलिए ऐसे फ़ोटो-वीडियो को पब्लिक नहीं किया जा रहा है. हमारा मीडिया बड़ा जिम्मेदार किस्म का मीडिया है, ऐसे फ़ोटो-वीडियो नहीं दिखाता. फिर समझदार लोगों ने मुझे डपट दिया - और तुम कैसे अजीब, बेशर्म, दिमागी नुक्स वाले आदमी हो जी, जो इस प्रकार के फ़ोटो-वीडियो देखना चाहता है? बस, मैं सहम भी गया और समझ भी गया.


पर फिर कुछ सवाल आ गए. ये भेजा भी ना, बहुत शोर करता है. सवाल ये आया कि जिहादी तो वैसे भी वही करने वाले हैं जो करने की वे ठाने बैठे हैं, और जो समझदार हैं, वे चाहे जो हो जाए, जिहादी बनने से रहे. फिर इतनी क्या चिंता? यदि सद्दाम के साथ कर सकते थे, तो लादेन के साथ क्यों नहीं?
यह भी पता चला कि लादेन की मौत पर कुछ लोगों ने जश्न मनाया और फिर जब समझदार लोगों ने चेताया कि भागो, तुम्हारे जश्न से नाराज जिहादी बम ले कर आ रहे हैं, तो सारे भाग के अपने अपने घरों में छिप गए. इसमें जश्न मनाने वाली बात से ज्यादा जरूरी सब्र और समझदारी वाली बात है. मेरी समझ में यह भी नहीं आया कि हम कैसे लोग होते जा रहे हैं कि किसी की भी मौत पर जश्न मनाने की सोच सकते हैं, चाहे वह कोई जालिम आवाम-हलाकू ही क्यों न हो?


यह भी समझ में नहीं आया कि इस एक मौत से दहशतगर्दी किसी भी तरह खत्म तो हो नहीं गयी. फिर जश्न किस बात का? ठीक है कि लादेन जिहादियों का आला और अजीमोश्शान नेता था और उसके होने का कुछ मतलब था. पर आज आतंकवाद किसी एक इंसान के इर्द-गिर्द नहीं घूम रहा है, बल्कि फ्रैंचाईज़ के तौर पर हर शहर में खुलने वाली ब्रांचों की तर्ज़ पर चल रहा है. आज के जिहादियों और किसी भी तरह के आतंकवादियों का - चाहे वे भारत के माओवादी या कश्मीरी पत्थरबाज हों, या लिट्टे के चीते हों - कोई एक नेता नहीं है, कोई एक कंट्रोलर नहीं है. जिहादियों के काम करने का तरीका पूरी तरह बदल चुका है और अब मुम्बई २६/११ की तरह के या बहुत छोटे एटमी हमलों पर जोर ज्यादा है, टॉवर उड़ाने की बनिस्बत. साधारण बम बनाना तो लोग इंटरनेट से ही सीख ले रहे हैं, और ट्रेनिंग के लिए किसी भी फंड की कोई कमी नहीं है. ऐसे में एक लादेन के कम होने से मसले में क्या खास फ़र्क पड़ जाएगा? असल जरूरत तो ऐसा माहौल बनाने की है जिसमें नफ़रत जड़ से खत्म हो जाए और आवाम चैन से रह सके. 


एक बात और समझ नहीं आयी. एक तरफ यह कहा गया कि किसी भी देश के साथ इस ख़ुफ़िया खबर को बांटा नहीं गया कि पता चल गया है लादेन कहाँ है और उस पर हमला होना है. दूसरी तरफ यह भी कहा गया कि इस सैनिक कार्रवाई और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान की मदद की तारीफ़ की जाती है. सवाल ये उठा कि यदि पाकिस्तानियों को कुछ पता ही नहीं था, तो उन्होंने मदद कब, कहाँ और क्यों की? और यदि कोई मदद नहीं की, तो तारीफ़ क्यों? क्या मजबूरी में, या पुचकारने के लिए? लगता तो नहीं कि इस से कोई फायदा होने वाला है, सिवाय इसके कि अमरीका को अभी भी अपनी सेनाएं अफगानिस्तान से निकालने के लिए पाकिस्तान से अरब सागर तक का रास्ता चाहिए. क्या यही बात है?


कहीं ये फिर से अरबों डॉलरों की खैरात देने का बहाना तो नहीं है?  ये आख़िरी सवाल सबसे ज्यादा परेशान कर रहा है क्योंकि एक तो मैं हिन्दुस्तानी हूँ और..... दो, इसमें मुझ पहले से ही निचोड़े हुए गरीब के टैक्स के डॉलर फिर से शामिल होंगे.  समझना मुहाल नहीं है कि इन डॉलरों का असल में क्या होता है.


वैसे, हाल में एक मजेदार बात और मालूम हुई है. सुना है एक बार बाहर खेलते कुछ बच्चों की एक गेंद  इस बंगले की चारदीवारी के अंदर चली गई. बंगले वालों ने न बच्चों को अंदर आने दिया, न उनकी गेंद ही वापस की, पर उन्हें नयी गेंद खरीदने के लिए पचास रुपये दे दिए. बस फिर क्या था, पचास रुपयों की खातिर बच्चे जब तब गेंदें किलेबंदी के अंदर फेंकने लगे.  और मजे की बात कि हर बार उन्हें गेंद की बजाय पचास रुपये दे दिए जाते थे. मैंने भी सोचा, पैसे कैसी कैसी तिकड़मों के जरिये बनाए जाते हैं, यह बात महज पाकिस्तान के हुक्मरान ही नहीं जानते, बल्कि वहाँ का बच्चा बच्चा तक जानता है!! 

Thursday, October 7, 2010

यू डर्टी इंडियन्स!

यह जुमला तब से चला आ रहा है जबसे गोरे लुटेरे आ कर देस पर काबिज हो गए थे. वही लाद कर गए हैं कि खबरदार, आगे जब हम अपने गुलामों के खेल करवाएंगे, तब तुम्हारे देस को भी इस में शामिल होना होगा. हमारे देस के कर्णधारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. हम पूरी खेलभावना के साथ इन 'गुलाममंडल" खेलों में शामिल होते आये. इस साल के लिए तो बीड़ा ही उठा लिया कि हम कराएंगे खेल! असल खेल तो इन खेलों के शुरू होने के बहुत पहले से चले और खेल खेल में आयकरदाताओं का बहुत सा पैसा बिना डकार लिए हजम कर लिया गया. यह दूसरी बात है कि खाने-खाने के इस खेल में खाने में लगे लोग भूल गए कि असल खेल भी कराने हैं, और इस चक्कर में लेट हो गए. लेटलतीफी का वह आलम था कि 'आवन लगे बरात तो ओटन लगे कपास' वाली कहावत भी फीकी पड़ गई. 


तैयारी के दौरान एक और बड़ा सवाल था, सफ़ाई का. पहले चरण में तो जनता के पैसे पर हाथ साफ़ किया गया, बड़ी सफ़ाई के साथ. फिर आया सफ़ाई का दूसरा चरण. कहा जाता है कि देस में तो बड़ी गन्दगी है. अब हमें अगर अपना कचरा पहली सहूलियत वाली जगह पर फेंकने की आदत है तो किसी को परेशानी क्यों होती है? हमारा तो राष्ट्रीय कर्त्तव्य सा है कि घर को साफ़ रखिये, और अपना कचरा घर के ठीक सामने, या बगल के खाली प्लॉट में उलट दीजिए. ऐसा करने से अपना घर तो साफ़ हो जाता है. फिर पूरा देस पड़ा तो है कचरा डालने के लिए. और, कचरा अगर जहाँ-तहाँ नहीं डालेंगे तो इतने सारे कचरा बीनने वाले बच्चे बेकार नहीं हो जायेंगे? कितने लोगों की रोजी रोटी चलती है इस कचरे से! काहे को इतने सारे लोगों के पेट पर लात मारना?  फिर हमारे देस की जनसंख्या भी तो इतनी है कि क्या करें? 
जब खेलों की प्लानिंग होनी शुरू हुई तो बात आयी गन्दगी की समस्या की. अब क्या है कि हम देसियों को तो गन्दगी से कोई समस्या नहीं है, बल्कि हमें तो गन्दगी से प्रेम है. इतना प्रेम है कि अपने घर तक में, हर दीवाली हम सारे घर का कचरा निकालते हैं, और उसे धो-पोंछ कर वापस यथास्थान रख देते हैं. पर यहाँ गड़ड़ यह थी कि इन खेलों के दौरान बाहर से आने वाले गोरों को इस गन्दगी पर नाक-भौं सिकोड़ने और देस को एक और गाली दे कर मन में प्रसन्न होने का मौका मिल जाता. अब हम देसी सब कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं, यहाँ तक कि गन्दगी भी, पर अब इतने देसभक्त तो हम लोग हैं ही कि गोरों को और प्रफुल्लित होने का कोई कारण नहीं देना चाहेंगे. 


तो सवाल था गन्दगी का. किसी जोधपुरीधारी को यह भान हुआ कि हमारा देस  ('दिल्ली', क्योंकि ज्यादातर दिल्लीवालों और बड़े जोधपुरीधारियों के लिए 'भारत' और 'दिल्ली' पर्यायवाची हैं) तो बड़ी गंदी अवस्था में है. इस चिंता में जोधपुरीधारियों ने सफ़ारी वालों को भी लपेट लिया. अचानक अब सारा वातावरण गंदा हो गया और हुक्मरानों और बाबुओं को पूरी दिल्ली गंदी दिखने लगी. अब, गन्दगी का एक सबसे सरल और समय बचाऊ समाधान है जो हर देसी जानता है और अभिमन्यु की तरह शायद माँ के पेट से सीख कर अवतरित होता है. वह समाधान यह है कि कचरा समेट कर कालीन के नीचे सरका दिया जाए. इसी तर्ज़ पर दिल्ली के किसी सफ़ारी वाले बाबू ने सुझाया कि गन्दगी होती है दो कारणों से. एक तो भिखारियों के कारण, जो गंदे कपड़े या चीथड़े पहनते हैं और गंदे से दिखते ही हैं, और दूसरे, रेहड़ी-ठेले वालों के कारण. सड़कछाप लोग आ कर इन रेहड़ियों पर गंदी चीज़ें खाते हैं, और उनका गन्दा कचरा आस-पास फ़ेंक देते हैं. सबसे पहले तो दिल्ली के तमाम भिखारियों को चुन चुन कर शहरबदर दिया गया क्योंकि वे देस का 'इम्प्रेसन' खराब कर देते. ऐसा कर देने मात्र से भिखारियों की समस्या सुलझ गई. अरे हाँ, उन बड़े, सबसे गंदे भिखारियों को इससे बख्श दिया गया जो हर पांच साल में भीख मांगते हैं और दिल्ली की एक गोल इमारत पर काबिज़ रहते हैं. 


उसके बाद बारी आई रेहड़ी-ठेले वालों की. इनको भी दिल्ली के बाहर किया गया, ताकि दिल्ली साफ़ रहे. गन्दगी का प्रमुख स्रोत, रेहड़ी वाले कम से कम इन खेलों तक के लिए दिल्ली से लतिया दिए गए. अब ये और बात है कि बहुत से गरीब छात्र (देसी छात्र सदा गरीब ही होते आये हैं, चाहे फटे कपड़ों में स्कूल जाने वाले और लैम्प-पोस्ट की रोशनी में पढ़ने वाले हों, या पिता को ए.टी.एम. मशीन मान कर डिज़ाइनर कपड़ों, लेटेस्ट मोबाइल और सबसे पावरफुल बाइक पर घूमने वाले क्यों न हों), मजदूर, निम्न-आय-वर्गी जन (पिज्जा हट और बरिस्ता अफोर्ड नहीं कर सकने वाले) भी इन्हीं रेहड़ी वालों की बदौलत कुछ खा पी पाते हैं. पर ऐसे लोगों की चिंता देस के सफारी वाले बाबू लोग करने लग गए तब तो हो गया काम. तो, हुआ यह कि भिखारी और रेहड़ी-खोमचे  वाले दिल्ली-बदर कर दिए गए. दिल्ली शहर साफ़ हो गया, तो एक तरह से पूरा देश साफ़ हो गया. दिल्ली छोड़ और तो कहीं खेलों के दौरान आने वाले ये गोरे जाने वाले थे नहीं,  इसलिए सफ़ारी वालों और जोधपुरी वालों की सफ़ाई की चिंता दूर हुई.  


पर होनी और ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था. इतनी मेहनत की गई, इतनी सारी सफ़ाई कर ली गई, फिर भी, सरकारी और निजी टारगेट के चलते चालान करने पर उतारू ट्रैफिक पुलिसवाले (कोड का नाम: मामा)  की तर्ज़ पर निरीक्षण के लिए देस आने वाले गोरों ने गन्दगी को ढूँढ ही निकाला. इतनी गन्दगी ढूँढ निकाली गई कि, जितनी थी नहीं, उतनी गन्दगी निकल आयी. जिस किसी जगह को देखा गया, वहीं पर गन्दगी निकल आई. कहा गया कि सब कुछ गन्दा है. सदा खबर की तलाश में रहने वाले सत्यान्वेषी चैनलों और कॉन्ट्रेक्ट न मिल पाने से खिसियाये कुछ अखबार वालों ने भी इन गोरों के सुर में सुर मिला कर "सुर बने हमारा" गाने वाले अंदाज़ में न केवल दिल्ली को, बल्कि पूरे देस को देसभक्ति के साथ, और पूरी दुनिया तक को ईमानदारी से बताया कि यहाँ तो सचमुच ही बड़ी गन्दगी है और गोरे खिलाड़ियों  और खेल प्रेमियों के स्वास्थ्य को जानलेवा खतरा है! पहले से मानो देस आने वाले गोरों को पड़ोस-प्रशिक्षित आतंकवादियों से जान का खतरा कम नहीं था कि अब गन्दगी से भी जान का खतरा हो गया.


ये और बात है कि सफ़ाई-पसंद गोरों और उनके उन खिलाडियों ने आज सफ़ाई बरकरार रखने की मुहिम और रोग-मुक्त रहने के चक्कर में खेल गाँव के टॉयलेट कॉन्डोम भर भर के जाम कर दिए हैं. (खबर पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें) 


और इसका क्या करें कि कोई खुराफ़ाती देसी, सफ़ाईप्रेमी गोरों के देश से, बड़ी सफ़ाई से ये फोटुएं उतार लाया? आप भी देखिये, कितनी सफ़ाई है गोरों के इस देश में!






अब कोई क्या करे? सब गन्दा है पर धंधा है ये!!