यह न केवल एक सत्य घटना है, अपितु मेरा स्वयं का अनुभव भी है.
जाड़े की सुबह और कडाके की ठण्ड! बरफ इस बार कुछ देर से पिघल रही थी और मौसम ख़ासा ठंडा ही था. यूँ मुझे ठण्ड ज़रा कम ही लगती है पर वह दिन ऐसे कुछ दिनों में से था कि मुझे भी सर्दी का अहसास हो रहा था. वैसे तो मुझे चाय-कॉफी की कोई आदत नहीं है पर इच्छा होने पर या अधिक ठण्ड लगने पर पी लेता हूँ. मन हुआ कि एक कॉफी मार ही ली जाए.
इस इच्छा से मैं हमारे विश्वविद्यालय के यूनिवर्सिटी सेंटर की ओर बढ़ गया. इस विशाल, बहुमंजिले सेंटर में खाने पीने की ढेरों दुकानें हैं, बुकशॉप है, छात्रों के बैठ कर खाने के लिए ढेरों टेबल-कुर्सियां हैं, लात तान कर सोने के लिए सोफेनुमा आराम कुर्सियां हैं, बैंक है, ए.टी.एम. है, सिनेमा हॉल है, गेमिंग स्टेशन हैं, पूल टेबल हैं, निंटेंडो वी खेलने की सुविधा है, डाक-डिब्बा है, जानकारी काउंटर है, मोबाईल की दुकान है, पढ़ने के लिए क्वाइट हॉल है, और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए बड़े हॉल तक हैं. मजाक की भाषा में कहूँ तो बस चिड़ियाघर नहीं है, रेलवे स्टेशन नहीं है, और हवाई अड्डा नहीं है, बाकी सब कुछ है. आम तौर पर सुबह के समय यह सेंटर औसत रूप से भरा होता है. सर्वाधिक चहल-पहल और शोर-शराबा भोजन के समय हुआ करता है. आज की बात कुछ और ही लग रही थी और सुबह के ९:३० बजे भी खासी भीड़ थी.
यूनिवर्सिटी सेंटर: बाहर से यूनिवर्सिटी सेंटर: अंदर से
मैं ने कॉफी ली और किसी तरह एक टेबल पर कब्ज़ा जमाया. कॉफी की शुरुआती चुस्कियों के दौरान ही मैं ने उसे देख लिया. दायीं ओर, सामने की ही दीवार से लगी टेबल पर वह अकेली बैठी थी. शांत-सौम्य चेहरा, ढलती सी उम्र, एक स्मित मुस्कान ओढ़े वह एक स्वेटर सा कुछ बुनती बैठी थी. बुनाई स्वचालित सी थी, क्योंकि उसकी आँखें बुनाई पर केन्द्रित नहीं थीं, और उसकी मुस्कान आस-पास की दुनिया को समर्पित सी लगती थी. शायद यूँ मेरा या किसी का भी ध्यान उसकी ओर न जाता, पर उसकी टेबल पर एक छोटा सा बोर्ड दीवार के साथ टिका था. बोर्ड पर फेल्ट पेन से हाथ की लिखाई में पढ़ा जा सकता था - "A MOM PRAYS FOR YOU".
कुछ पल तो मेरी समझ में नहीं आया कि उसके बोर्ड पर लिखी इस इबारत और उसकी मुस्कान का मतलब क्या था? फिर अचानक दिमाग में कुछ चमका. भारत में मैंने तरह तरह के भिखारी देखे हैं. दयनीय चेहरे के साथ बूढ़े भिखारी, अंगभंग हुए भिखारी, 'दर्शन दो घनश्याम' गाते हुए भिखारी, ट्रेनों में नाचने-गाने वाले बच्चे, बच्चा गोद में लिए हुए कोई महिला या कोई ज़रा बड़ा बच्चा, मंदिरों के बाहर के भिखारी, रोज दरवाजे पर आने वाले, ताली बजा कर और मुझ जैसे ज़ीरो-पैक, बाकायदा शर्टधारी इंसान को भी 'हाय मेरे सलमान खान' बोल कर भीख माँगने वाले, शनिवार को शनि उतारने वाले, एकादशी और द्वादशी की याद दिलाने वाले, और भी न जाने कितने! इसके अलावा कमल हासन की 'पुष्पक' में भिखारी के रोल में नारायण को देखा है जो कमल के अठन्नी दिखा कर चिढ़ाने पर उसे एक एक कर ढेरों सिक्के और फिर सारे नोट यूँ दिखाता है कि हीनभावना के चलते गरीब और बेरोजगार कमल को ही रफूचक्कर होना पड़ता है. फिर गर्दिश का अन्नू कपूर याद आता है जो समय के साथ भिखारी के स्तर से ऊपर उठ कर खुद भिखारियों को चलाने वाली कंपनी का डायरेक्टर बन जाता है.
इसके अलावा मैंने सुना है मोबाइल पर एक दूसरे को लंगर की सूचना दे कर बुलवाते भिखारियों के बारे में, करोड़पति भिखारियों के बारे में, मोटर साइकिल पर अपने भिक्षा क्षेत्र पहुँचने वाले भिखारियों के बारे में, बड़े शहरों में दिन में किसी दफ्तर में काम के बाद भीड़ वाली जगहों पर कपड़े बदल कर पार्ट-टाईम भीख माँगने वाले भिखारियों के बारे में, मौके के हिसाब से चोरी- राहजनी कर सकने या भीख माँग सकने वाले भिखारियों के बारे में, अपने छुट्टी के समय पर दूसरों को अपना भिक्षण-क्षेत्र लीज़ पर दे के जाने वाले भिखारियों के बारे में, सीज़न या सप्ताह के दिनों के हिसाब से अलग अलग धर्मों के धार्मिक संस्थानों के बाहर प्रकट होने वाले भिखारियों के बारे में, सिग्नलों के बीच के क्षेत्रों का अतिक्रमण करने वाले भिखारियों से लड़ते मौलिक भिखारियों के बारे में, गोद के बच्चों को किराए पर ले या दे कर अलग अलग समय पर अलग अलग क्षेत्रों को कवर करने वाले भिखारियों के बारे में!
इसके अलावा मैंने सुना है मोबाइल पर एक दूसरे को लंगर की सूचना दे कर बुलवाते भिखारियों के बारे में, करोड़पति भिखारियों के बारे में, मोटर साइकिल पर अपने भिक्षा क्षेत्र पहुँचने वाले भिखारियों के बारे में, बड़े शहरों में दिन में किसी दफ्तर में काम के बाद भीड़ वाली जगहों पर कपड़े बदल कर पार्ट-टाईम भीख माँगने वाले भिखारियों के बारे में, मौके के हिसाब से चोरी- राहजनी कर सकने या भीख माँग सकने वाले भिखारियों के बारे में, अपने छुट्टी के समय पर दूसरों को अपना भिक्षण-क्षेत्र लीज़ पर दे के जाने वाले भिखारियों के बारे में, सीज़न या सप्ताह के दिनों के हिसाब से अलग अलग धर्मों के धार्मिक संस्थानों के बाहर प्रकट होने वाले भिखारियों के बारे में, सिग्नलों के बीच के क्षेत्रों का अतिक्रमण करने वाले भिखारियों से लड़ते मौलिक भिखारियों के बारे में, गोद के बच्चों को किराए पर ले या दे कर अलग अलग समय पर अलग अलग क्षेत्रों को कवर करने वाले भिखारियों के बारे में!
सबसे अनूठे या अलग मैंने अपने आज तक के जीवन में तीन भिखारी देखे हैं. एक थे एक वयोवृद्ध, कृशकाय, बिना-दाँतों वाले पंडितजी जो भगवा कपड़ों और साफे में, त्योहारों के दिनों पर ही मोहल्ले में हमारे घर आया करते थे और सांकल बजा कर घर की देहरी पर बैठ जाया करते थे. वे सिर्फ एक आवाज दिया करते, "माँ", और इसके सिवा कुछ नहीं बोलते थे. इसकी आवश्यकता भी नहीं हुआ करती थी. तब मेरी दिवंगत दादीजी जीवित थीं और वे उन्हें देखते ही माताजी को इशारा कर देतीं. इसके बाद थोड़ी थोड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार के अन्न, दालें, तिल, मसाले, नमक और तेल तक उनके लिए निकाला जाता जिसे वे आराम से और बड़ी सफाई के साथ साथ लाए हुए एक भगवा कपड़े में बनी हुई ढेर सारी अलग अलग पोटलियों में बाँधा करते. तेल के लिए उनके पास एक अलग डब्बा हुआ करता. मैं और मेरा भाई बड़े ध्यानपूर्वक उनके द्वारा सारे सामान को पूरे मनोयोग के साथ बाँधने की प्रक्रिया को देखा करते थे. अजीब सा स्नेह था उनके साथ. कारण शायद उनकी उम्र थी और गांधीजी वाला गोल फ्रेम का उनका चश्मा. तब बचपन था और हम लोग गांधीजी को भगवान सदृश माना करते थे. बाद में समय और बढ़ती महंगाई के चलते हमारे परिवार के लिए उन्हें सारे अन्नादि देना मुश्किल होता गया और उन्हें चीज़ें मांगनी पड़तीं. बन पाता तो हम लोग दे देते पर कभी कभी उन्हें किसी किसी वस्तु के लिए मना भी करना पड़ता.
तो ये थे पहले महोदय. दूसरा था जो कि गूंगा था और अजीब, दयनीय सी पर जोरदार आवाज में कुछ याचना सी करता. उसकी आवाज से मेरा छोटा भाई बहुत डरा करता और दौड़ कर पहले दरवाजा बंद करवाता था क्योंकि वह तब खुद ऐसा नहीं कर पाता था. पर यह बात भी थी कि वह उस गूंगे को कुछ न कुछ जरूर दिलवाया करता, बस शर्त यह होती कि दरवाजा थोडा सा ही खोला जाए और जब दरवाजा खुले तो वह किसी की गोद में सुरक्षित हो. मैंने शायद अब तक के जीवन में अपने भाई को उस गूंगे भिखारी से ही डरते देखा है. यहाँ तक कि जरूरत पड़ने पर माँ भी उसे डराने के लिए उसी भिखारी की ही याद दिलाती थी.
तीसरा ऐसा अनूठा भिखारी मुझे याद आता है जो रविवार के रविवार आ कर दरवाजे पर बड़ी दबंग (फुल वॉल्यूम) आवाज में ऐलान करता था - "आज संडे है". उसे हम लोगों ने नाम दिया था 'संडे के संडे'. उसके इन तीन शब्दों का मतलब निकलता था कि मैं आ गया हूँ, अब मेरी साप्ताहिक भीख लाओ.
तो ये थे पहले महोदय. दूसरा था जो कि गूंगा था और अजीब, दयनीय सी पर जोरदार आवाज में कुछ याचना सी करता. उसकी आवाज से मेरा छोटा भाई बहुत डरा करता और दौड़ कर पहले दरवाजा बंद करवाता था क्योंकि वह तब खुद ऐसा नहीं कर पाता था. पर यह बात भी थी कि वह उस गूंगे को कुछ न कुछ जरूर दिलवाया करता, बस शर्त यह होती कि दरवाजा थोडा सा ही खोला जाए और जब दरवाजा खुले तो वह किसी की गोद में सुरक्षित हो. मैंने शायद अब तक के जीवन में अपने भाई को उस गूंगे भिखारी से ही डरते देखा है. यहाँ तक कि जरूरत पड़ने पर माँ भी उसे डराने के लिए उसी भिखारी की ही याद दिलाती थी.
तीसरा ऐसा अनूठा भिखारी मुझे याद आता है जो रविवार के रविवार आ कर दरवाजे पर बड़ी दबंग (फुल वॉल्यूम) आवाज में ऐलान करता था - "आज संडे है". उसे हम लोगों ने नाम दिया था 'संडे के संडे'. उसके इन तीन शब्दों का मतलब निकलता था कि मैं आ गया हूँ, अब मेरी साप्ताहिक भीख लाओ.
अमरीका का चलन और है. यहाँ के भिखारी आपसे सीधे कुछ बोल कर भीख नहीं माँगते. आप देखेंगे कि फुटपाथ पर वाद्य यन्त्र लेकर कोई अकेला मानुस या यंत्रों के साथ कुछ लोग संगीत की धुन निकालने में लगे होंगे, या फुटपाथ पर ही कोई चित्रकारी या रंगोली सी बना कर किनारे बैठे होंगे, या खुद को किसी कार्टून पात्र या विख्यात कलाकार के रूप में सजा कर मजमा लगा रहे होंगे, या बस ऐसे ही दीवार से लग कर फुटपाथ पर बैठे या सिग्नलों पर धूप में खड़े होंगे. बहुधा इन अंतिम दो प्रकार के भिखारियों के पास एक बोर्ड होता है जिसमें "होमलैस एंड ब्रोक" या "जॉबलैस एंड हंगरी, प्लीज़ हेल्प" जैसा कुछ लिखा होता है. ये आपसे बहुधा तो कुछ नहीं कहते, बहुत ज्यादा हुआ तो एक मुस्कराहट के साथ "हैलो" या "हाय" या समय के हिसाब से अभिवादन कर देंगे.
मेरे साथ भारत में भी यही होता था और यहाँ भी वही हाल है. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता हूँ कि इनकी मदद कैसे करूँ - भीख देकर या भीख न देकर? यहाँ अमरीका में एक दुविधा और जुड़ जाती है - कि इन्हें एक रुपया दूँ या जब अपने देस जाऊँगा तो इन जैसे पचास को एक-एक रुपया दे दूँगा? आपके पास इन दुविधाओं का कोई जवाब हो तो जरूर सुझाएँ.
मूल विषय से भटकने और आपको अपने साथ भटकाने के लिए माफ़ी चाहता हूँ. बात उन अमरीकी महोदया की हो रही थी जो एक बोर्ड के साथ सतत मुस्कुराती हुई मेरे सामने की टेबल में विराजमान थीं. एक-दो बार मेरी उनकी आँखें मिलीं भी पर मैंने अपने चेहरे पर न मुस्कान आने दी या और न कोई भाव क्योंकि मेरे मन में तब तक यह आ चुका था कि इन भिखारियों की हिम्मत तो देखो, यूनिवर्सिटी के अंदर तक आ धमके! ये महोदया भी अपने माँ होने की दुहाई देती, और कोई नहीं मिला तो छात्रों से ही माँगने आ पहुंचीं यहाँ! मन हो रहा था कि जा कर इसकी किसी से रिपोर्ट की जाए. फिर यह लगा कि मुझे क्या, बैठी रहने दो, और कोई कर ही देगा रिपोर्ट, मैं क्यों बेकार का झंझट पालूँ.
मैंने कॉफी खत्म की और सेंटर से बाहर निकल आया. लैब की ओर बढते हुए भी उस की मुस्कान और यह वाकया मन से नहीं निकल रहा था. कहीं कुछ खटक रहा था. फिर लगा कि क्या यार, कैसा आदमी हूँ मैं? क्या जाने भूखी हो. मैं उसके सामने बैठ कर शान से कॉफी पी आया. उससे भी कम से कम कॉफी के लिए पूछ लेता! हूँ तो गरीब छात्र ही सही, पर इतना तो अफोर्ड कर ही सकता हूँ. दिल ने कहा, "पलट और वापस जा. उससे कॉफी या नाश्ते के लिए पूछ तो सही. और कुछ बोले तो खिला पिला दे. पांच-दस डॉलर मांगे तो दे दे. कम से कम इस एक बार इस एक की मदद तो कर दे!"
मन पक्का कर मैं वापस लौटा. सीधे उसकी टेबल की ओर जाते नहीं बन रहा था क्योंकि अभी अभी उठ कर यहाँ से गया था, सो आस-पास खड़ा होकर उसकी दिशा में यों देखने लगा जैसे किसी को ढूँढ सा रहा हूँ. फिर उसकी ओर देखा, हिम्मत का अगला गियर लगाया और उसकी ओर बढ़ चला. पास पहुँचते हुए उसका अभिवादन किया और सामने पहुँच कर पूछ लिया, "माफ कीजिये, कुछ देर से आपका यह बोर्ड देख रहा था पर इसका कुछ भी मतलब समझ नहीं पा रहा था. रहा नहीं गया तो पूछने चला आया. क्या आप इसका मतलब समझा सकती हैं?"
उसका उत्तर था, "ओह, दरअसल आज से इस क्वार्टर की परीक्षाएं शुरू हो रही हैं. मैं परीक्षा देने वाले छात्रों के लिए प्रार्थना कर रही हूँ."
मुझे यह उत्तर सुनकर कुछ अजीब सा लगा और मैंने पूछा, "पर आप ऐसा किस वजह से कर रही हैं?"
उसने उत्तर दिया,"मेरे दो बेटों ने हाल ही में इस यूनिवर्सिटी से स्नातक शिक्षा प्राप्त की है. मेरा छोटा बेटा बस तीन महीने पहले ही यहाँ से स्नातक हो कर नौकरी करने चला गया है. मैंने परीक्षा के दिनों में मेरे बेटों और उनके मित्रों को बड़े तनाव में देखा है. अब मेरे बेटे और उनके मित्र तो इस यूनिवर्सिटी में नहीं हैं, पर मैं अपने उन बेटों-बेटियों, उन छात्रों के लिए यहाँ बैठी हूँ जो आज से परीक्षा देने वाले हैं. मैं उन्हें बताना चाहती हूँ कि तनाव के इस क्षण में मैं उनके साथ हूँ और उनकी सफलता के लिए प्रार्थना कर रही हूँ. आगे की परीक्षाओं के लिए भी आती रहूंगी, यदि ईश्वर ने चाहा और यदि मैं इसी शहर में रही तो."
मेरे ऊपर जैसे घडों पानी पड़ गया. इतनी शर्मिंदगी महसूस हुई कि बता नहीं सकता. वह किस भावना के साथ वहाँ बैठी थी, और मैं उसे क्या समझे हुए था! अचानक मेरे मन में उसके लिए बहुत सा आदर उपजा और अपनी क्षुद्र सोच पर नाराजगी. मन ही मन भगवान को ढेर सारा धन्यवाद दिया कि अति-उत्साह में आकर उसकी रिपोर्ट करने की बेवकूफी से उन्होंने मुझे बचा लिया.
फिर उसने मुझसे पूछा, "आप यहाँ के छात्र हैं?"
मैंने कहा, "छात्र भी हूँ और शिक्षक भी. पी.एच.डी. का छात्र हूँ और स्नातक स्तर से नीचे के छात्रों को पढाता हूँ. आपकी इस भावना से विव्हल हूँ और अपने देश में कहीं भी मैंने ऐसा कुछ कभी नहीं देखा."
उसने कहा, " मैं आपके लिए भी प्रार्थना करूंगी और आपके छात्रों के लिए भी."
मैंने कहा, "जरूर, मुझे और मेरे छात्रों को इसकी आवश्यकता है और इसके लिए हम आपके आभारी रहेंगे. शायद आप बहुत देर से बैठी हैं, क्या मैं आपके लिए कॉफी या और कुछ ला सकता हूँ?"
उस ने मुस्कुरा कर कहा, "यह आपकी दयालुता है पर धन्यवाद, मुझे कुछ नहीं चाहिए."
मैंने उससे कहा, "आज आपने मुझे जो अभूतपूर्व अनुभव दिया है वह मैं जीवन भर नहीं भूलने वाला हूँ. इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद."
उत्तर में उसने चिर-मुस्कान वाले चेहरे के साथ मुझसे कहा, "भगवान आपका भला करें."
अबकी बार वहाँ से लौटा तो ह्रदय पर उसकी मुस्कान की छाप लिए. मुझे मेरे स्वयं के स्कूल के कुछ अंतिम वर्ष याद आ गए जिसमें वार्षिक परीक्षा के समय मैं चाहा करता कि थोड़ी देर को भी माँ घर से कहीं न जाएँ. उनके घर में होने से एक अजीब सी सुरक्षा की भावना मिलती थी और पढ़ाई अधिक अच्छी तरह होती थी. बाद में घर छूटा, पढाई के लिए दूसरे शहर जाना पड़ा और हॉस्टल में रहना पड़ा. तब से किसी भी परीक्षा के समय माँ साथ नहीं रही - स्नातक होने के वर्षों में, मेरी दोनों स्नातकोत्तर परीक्षाओं में, अधिकाँश प्रतियोगी परीक्षाओं में और अब यहाँ अमरीका की परीक्षाओं तक में, मुझे परीक्षा के समय माँ की अनुपस्थिति हमेशा ही बहुत खलती रही. पर किस्मत का भी क्या खेल है कि आज एक माँ यहाँ परदेस में यूँ ही मिल गई.
जगजीत सिंह जी की गाई एक गज़ल का एक शेर बरबस याद हो आया.
"मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार
दिल ने दिल से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार....."