हाल की एक खबर के अनुसार भारत की केंद्र सरकार ऩे स्कूलों में कारपोरल पनिशमेंट पर रोक लगाने के दिशा-निर्देश जारी किये हैं. इन निर्देशों के बाद अब शिक्षकों को संभल कर रहना होगा क्योंकि भविष्य में इसका उल्लंघन करने वाले शिक्षकों को अब जेल या जुरमाना, या दोनों की सजा हो सकती है. साथ ही दोषी शिक्षकों को पदोन्नति और आय-वृद्धि नहीं मिलेगी. खबर यह भी है कि भारत सरकार एक नया 'चिल्ड्रन ऑफेंसेज़ बिल' भी तैयार कर रही है. इस बिल के अनुसार बच्चों से मारपीट, उनका शारीरिक शोषण, और गाली-गलौच भी अपराध की श्रेणी में आयेंगे. यह बिल स्कूलों, शिक्षकों के साथ अभिभावकों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों पर भी लागू होगा. हालांकि रैगिंग पहले ही अपराधों की श्रेणी में है, पर वह इस बिल की परिधि में भी आएगा.
इस बिल के विषय में बहुत से सवाल उठते हैं. क्या हमारे देश की जनता में इतना सामर्थ्य है कि ऐसे कानूनों को समझ भी सके? क्या इसके दुरुपयोगों से जनता डरेगी, इसे ऐसा स्वरूप दिया जाएगा? ऐसा बिल जारी करने से बच्चों के हाथों में बहुत सी शक्ति आ जायेगी. क्या वे उस शक्ति का सदुपयोग ही करेंगे? क्या उन्हें कोई बड़ा बरगला या डरा-धमका कर इस बात के लिए राजी नहीं कर सकता कि वे उसका दुरुपयोग करें? हमें 17वीं शताब्दी के अमरीका के सालेम में हुए उन मुकदमों को नहीं भूलना चाहिए जब अल्पवय बालिकाओं द्वारा मात्र आरोप लगा देने पर पचासों लोगों को जादू -टोना करने और चुड़ैल होने के लिए फांसी पर चढ़ा दिया गया था. बाद में इन में से बहुत सी बालिकाओं ने आरोपों को झूठा बताते हुए माफ़ी माँगी थी, पर तब तक बहुत से निर्दोष चर्च निर्देशित न्यायालय के आदेशों द्वारा मारे जा चुके थे.
मेरे एक मित्र की इस बिल पर मजेदार प्रतिक्रया थी कि इस कानून से शायद जनसंख्या कम हो जाए क्योंकि लोग डरने लगेंगे कि न जाने कब बच्चा घर वालों को जेल भिजवा दे. उनका विचार था कि ऐसा बिल भारत में लागू करना पश्चिमी देशों का अंधानुकरण है.
मेरे विचार में पश्चिमी क़ानून बनाने के बारे में उनका कथन बिलकुल सही है. अमरीका में बच्चों को सबसे पहले यह सिखाया जाता है कि, "बच्चों, तुमें कोई भी परेशान करे, यहाँ तक कि तुम्हारे अपने माता-पिता भी, तो सीधे ९११ डायल करो और उन्हें अंदर करवा दो." बच्चे इसका पूर्ण पालन करते हैं. ऐसे बहुत से माता पिता देखे जा सकते हैं जिनका जीवन उनके बच्चों के ९११ कॉल और उसके बाद की शिकायत के बाद दूभर हो गया. ऐसी पहली शिकायत के बाद अगले एक साल तक हर महीने माता-पिता को बच्चे के साथ न्यायालय जा कर हाजिरी देनी पड़ती है. वहाँ बच्चे से फिर से पूछा जाता है कि उसे माँ-बाप से कोई शिकायत तो नहीं है. यदि उसने कहा कि सब ठीक है, तब तो अगले महीने तक ठीक, पर यदि उसने फिर शिकायत कर दी, तो बच्चे को सरकार अपने संरक्षण में ले लेती है और फिर उसे उसके माता-पिता को नहीं देती. पहली शिकायत के बाद, अगले एक साल तक यदि बच्चे को किसी भी तरह की चोट पहुँची (चाहे खेलते हुए या उसकी अपनी गलती से), तो भी उसे माता-पिता की लापरवाही माना जाता है. यह सब बाकायदा माता-पिता के रिकार्ड में दर्ज हो जाता है और आगे की पूरी ज़िंदगी उनका पीछा नहीं छोड़ता है. मजे की बात यह, कि यह केवल अमरीकी नागरिकों पर ही लागू हो, ऐसा नहीं है. कुछ समय के लिए नौकरी के अनुबंध पर गए विदेशी भी इसकी परिधि में आते हैं.
अब यह बात तो है कि हम भारतीयों के अपने बच्चों को पालने के तौर-तरीके अमरीकियों के तरीकों से सर्वथा अलग होते हैं. भारत में हम सबसे पहले बच्चे को आदर-सम्मान, नम्रता, भद्रता, विनय, शालीनता और शिष्टाचार की शिक्षा देते हैं. इस आदर सम्मान में सर्वोपरि स्थान माता-पिता को दिया जाता है. अमरीका में ऐसा कोई चलन है ही नहीं, और हर कोई पृथकत्व और एकान्तता का समर्थक है, यहाँ तक बच्चे भी. जन्म के तुरंत बाद से ही माता अपने बच्चे को एक ऐसे पृथक पालने में सुलाने लगती है, जिसे अंगरेजी में क्रिब कहते हैं. भारत में तो पालन पोषण का ऐसा रिवाज नहीं है. अमरीका में - अपने माता-पिता की एक न सुनने वाले, उनकी अवहेलना करने वाले, और सीधे सीधे उनके अपमान और उपहास में कुछ भी कह जाने वाले बच्चे ही मैं ने अधिक देखे हैं. इस वजह से, और ऐसे कानूनों के कारण अमरीका में रहने वाले बहुत से भारतीयों को भी ढेर सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है.
ऐसे क़ानून भी शायद एक कारण हैं कि अमरीकियों को अपने बच्चों के साथ उतना लगाव नहीं हो पाता जितना हम भारतीयों को अपने बच्चों से होता है. यह सब उनके सामजिक ढाँचे और सामान्य जीवन को भी प्रभावित करता है. देखना यह है कि क्या हम ऐसे कानून बना कर भारत में लागू कर पाएंगे? भारतीय परिप्रेक्ष्य में ऐसे कानूनों का औचित्य मुझे ज़रा कम ही समझ आता है. अगर इस कानून को बना कर तुरंत जनता पर लाद दिया गया, तो देखियेगा क्या क्या गुल खिलेंगे.
अब ऐसे बिल को स्वागत-योग्य कहा जाए या इसके दुरुपयोग से डरा जाए? जहाँ तक दुरूपयोग की बात है, तो कौन सा ऐसा बिल है जिसका दुरूपयोग न हुआ हो? हरिजन क़ानून और दहेज प्रताडना क़ानून हरिजनों और विवाहिताओं की सहायता के लिए बनाए गए थे. आज देखा यह जा रहा है कि ऐसे कानूनों का जमकर दुरुपयोग हो रहा है. इन कानूनों के प्रावधान भी अजीब हैं. आरोपी सच में दोषी है भी या नहीं, यह बाद में देखा जाता है, जब मुकदमा चलता है और फैसले तक पहुँचता है. रिपोर्ट होते ही पहला काम पुलिस यह करती है कि बिना कोई छानबीन किये आरोपी य आरोपियों को पकड़कर जेल में पहले ठूँसती है. इन कानूनों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि शिकायत झूठी साबित होने पर शिकायतकर्ता को भी कड़ी सजा का डर रहे. फिर, भारत में तो क़ानून से डरने का चलन ही नहीं है और लोग पैसों और ताकत के बल पर झूठ को भी सही साबित कर लेते हैं. ऐसे में इस नए क़ानून का क्या होगा? दुरुपयोग तो शायद हर क़ानून का हो सकता है, पर जब दुरुपयोग एक सीमा से अधिक होने लगे, तो क्या वह चिंताजनक नहीं होता? क़ानून बनानेवाले इस विषय में सोचते नहीं, क्योंकि उन्हें किसी क़ानून का कोई डर नहीं है. हो भी क्यों? "समरथ को नहिं दोस गुसाईं".
तो, जैसे अस्पृश्यता, हरिजन और दहेज सम्बंधित बिलों का धड़ल्ले से दुरुपयोग हुआ है, वैसे ही इस बिल का भी होगा. बिल के आने के बाद भी कितने शिक्षकों की मानसिकता बदलेगी, कहना कठिन है. अलबत्ता इतना जरूर होगा कि शिक्षक पढ़ाने से डरने जरूर लगेंगे. आजकल के अधिकाँश हाई-स्कूलों के छात्रों में अनुशासन की कमी वैसे भी बहुतायत में देखने को आती है. इसका सबसे बड़ा कारण शिक्षकों की उदासीनता है. इसे "मुझे क्या" सिंड्रोम कह सकते हैं. और वे उदासीन भी क्यों न हों? सारे सदाचरण का, मान-मर्यादा का, सारी नैतिकताओं के ठेके का बोझ तो भारत में शिक्षकों पर लादा जा सकता है. साथ ही उनसे जनगणना, मतगणना, पल्स-पोलियो इत्यादि से सम्बंधित (और शिक्षण से असंबंधित) सारे कार्य कराये जा सकते हैं, पर उन्हें आराम से जीने लायक जायज पैसा नहीं दिया जा सकता है. अधिकाँश शिक्षकों में छुपी कुंठा का सबसे बड़ा कारण यही है. ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है? जब तक इन समस्याओं का जड़ से हल नहीं निकलेगा, ऐसे बिलों को अधिकतर शिक्षक सही परिप्रेक्ष्य में नहीं ले पाएंगे. ऐसा मुझे लगता है (एक शिक्षक होने के नाते).
रैगिंग लेना तो पहले से ही मानवाधिकार कानून के तहत अपराधों की श्रेणी में आ गया है (लगभग पांच साल पहले से). हर साल बहुत से (जैसे कि मेरे पूर्व-कालेज में) कालेजों में एंटी-रैगिंग स्क्वाड का गठन होता है और शिक्षकों को विभिन्न क्षेत्रों में (हॉस्टल, और कुछ क्षेत्र जहाँ छात्र किराये पर रहते हैं, रेलवे-स्टेशन, पार्क इत्यादि जैसे कुछ सार्वजनिक स्थानों में) औचक पहुँच कर जांच करने का आदेश होता है. कड़ी सजा का प्रावधान भी है, पुलिस रिकॉर्ड के साथ, पर फिर भी रैगिंग पर पूरी रोक तो नहीं लग पायी है.
इस बिल के विषय में बहुत से सवाल उठते हैं. क्या हमारे देश की जनता में इतना सामर्थ्य है कि ऐसे कानूनों को समझ भी सके? क्या इसके दुरुपयोगों से जनता डरेगी, इसे ऐसा स्वरूप दिया जाएगा? ऐसा बिल जारी करने से बच्चों के हाथों में बहुत सी शक्ति आ जायेगी. क्या वे उस शक्ति का सदुपयोग ही करेंगे? क्या उन्हें कोई बड़ा बरगला या डरा-धमका कर इस बात के लिए राजी नहीं कर सकता कि वे उसका दुरुपयोग करें? हमें 17वीं शताब्दी के अमरीका के सालेम में हुए उन मुकदमों को नहीं भूलना चाहिए जब अल्पवय बालिकाओं द्वारा मात्र आरोप लगा देने पर पचासों लोगों को जादू -टोना करने और चुड़ैल होने के लिए फांसी पर चढ़ा दिया गया था. बाद में इन में से बहुत सी बालिकाओं ने आरोपों को झूठा बताते हुए माफ़ी माँगी थी, पर तब तक बहुत से निर्दोष चर्च निर्देशित न्यायालय के आदेशों द्वारा मारे जा चुके थे.
मेरे एक मित्र की इस बिल पर मजेदार प्रतिक्रया थी कि इस कानून से शायद जनसंख्या कम हो जाए क्योंकि लोग डरने लगेंगे कि न जाने कब बच्चा घर वालों को जेल भिजवा दे. उनका विचार था कि ऐसा बिल भारत में लागू करना पश्चिमी देशों का अंधानुकरण है.
मेरे विचार में पश्चिमी क़ानून बनाने के बारे में उनका कथन बिलकुल सही है. अमरीका में बच्चों को सबसे पहले यह सिखाया जाता है कि, "बच्चों, तुमें कोई भी परेशान करे, यहाँ तक कि तुम्हारे अपने माता-पिता भी, तो सीधे ९११ डायल करो और उन्हें अंदर करवा दो." बच्चे इसका पूर्ण पालन करते हैं. ऐसे बहुत से माता पिता देखे जा सकते हैं जिनका जीवन उनके बच्चों के ९११ कॉल और उसके बाद की शिकायत के बाद दूभर हो गया. ऐसी पहली शिकायत के बाद अगले एक साल तक हर महीने माता-पिता को बच्चे के साथ न्यायालय जा कर हाजिरी देनी पड़ती है. वहाँ बच्चे से फिर से पूछा जाता है कि उसे माँ-बाप से कोई शिकायत तो नहीं है. यदि उसने कहा कि सब ठीक है, तब तो अगले महीने तक ठीक, पर यदि उसने फिर शिकायत कर दी, तो बच्चे को सरकार अपने संरक्षण में ले लेती है और फिर उसे उसके माता-पिता को नहीं देती. पहली शिकायत के बाद, अगले एक साल तक यदि बच्चे को किसी भी तरह की चोट पहुँची (चाहे खेलते हुए या उसकी अपनी गलती से), तो भी उसे माता-पिता की लापरवाही माना जाता है. यह सब बाकायदा माता-पिता के रिकार्ड में दर्ज हो जाता है और आगे की पूरी ज़िंदगी उनका पीछा नहीं छोड़ता है. मजे की बात यह, कि यह केवल अमरीकी नागरिकों पर ही लागू हो, ऐसा नहीं है. कुछ समय के लिए नौकरी के अनुबंध पर गए विदेशी भी इसकी परिधि में आते हैं.
अब यह बात तो है कि हम भारतीयों के अपने बच्चों को पालने के तौर-तरीके अमरीकियों के तरीकों से सर्वथा अलग होते हैं. भारत में हम सबसे पहले बच्चे को आदर-सम्मान, नम्रता, भद्रता, विनय, शालीनता और शिष्टाचार की शिक्षा देते हैं. इस आदर सम्मान में सर्वोपरि स्थान माता-पिता को दिया जाता है. अमरीका में ऐसा कोई चलन है ही नहीं, और हर कोई पृथकत्व और एकान्तता का समर्थक है, यहाँ तक बच्चे भी. जन्म के तुरंत बाद से ही माता अपने बच्चे को एक ऐसे पृथक पालने में सुलाने लगती है, जिसे अंगरेजी में क्रिब कहते हैं. भारत में तो पालन पोषण का ऐसा रिवाज नहीं है. अमरीका में - अपने माता-पिता की एक न सुनने वाले, उनकी अवहेलना करने वाले, और सीधे सीधे उनके अपमान और उपहास में कुछ भी कह जाने वाले बच्चे ही मैं ने अधिक देखे हैं. इस वजह से, और ऐसे कानूनों के कारण अमरीका में रहने वाले बहुत से भारतीयों को भी ढेर सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है.
ऐसे क़ानून भी शायद एक कारण हैं कि अमरीकियों को अपने बच्चों के साथ उतना लगाव नहीं हो पाता जितना हम भारतीयों को अपने बच्चों से होता है. यह सब उनके सामजिक ढाँचे और सामान्य जीवन को भी प्रभावित करता है. देखना यह है कि क्या हम ऐसे कानून बना कर भारत में लागू कर पाएंगे? भारतीय परिप्रेक्ष्य में ऐसे कानूनों का औचित्य मुझे ज़रा कम ही समझ आता है. अगर इस कानून को बना कर तुरंत जनता पर लाद दिया गया, तो देखियेगा क्या क्या गुल खिलेंगे.
अब ऐसे बिल को स्वागत-योग्य कहा जाए या इसके दुरुपयोग से डरा जाए? जहाँ तक दुरूपयोग की बात है, तो कौन सा ऐसा बिल है जिसका दुरूपयोग न हुआ हो? हरिजन क़ानून और दहेज प्रताडना क़ानून हरिजनों और विवाहिताओं की सहायता के लिए बनाए गए थे. आज देखा यह जा रहा है कि ऐसे कानूनों का जमकर दुरुपयोग हो रहा है. इन कानूनों के प्रावधान भी अजीब हैं. आरोपी सच में दोषी है भी या नहीं, यह बाद में देखा जाता है, जब मुकदमा चलता है और फैसले तक पहुँचता है. रिपोर्ट होते ही पहला काम पुलिस यह करती है कि बिना कोई छानबीन किये आरोपी य आरोपियों को पकड़कर जेल में पहले ठूँसती है. इन कानूनों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि शिकायत झूठी साबित होने पर शिकायतकर्ता को भी कड़ी सजा का डर रहे. फिर, भारत में तो क़ानून से डरने का चलन ही नहीं है और लोग पैसों और ताकत के बल पर झूठ को भी सही साबित कर लेते हैं. ऐसे में इस नए क़ानून का क्या होगा? दुरुपयोग तो शायद हर क़ानून का हो सकता है, पर जब दुरुपयोग एक सीमा से अधिक होने लगे, तो क्या वह चिंताजनक नहीं होता? क़ानून बनानेवाले इस विषय में सोचते नहीं, क्योंकि उन्हें किसी क़ानून का कोई डर नहीं है. हो भी क्यों? "समरथ को नहिं दोस गुसाईं".
तो, जैसे अस्पृश्यता, हरिजन और दहेज सम्बंधित बिलों का धड़ल्ले से दुरुपयोग हुआ है, वैसे ही इस बिल का भी होगा. बिल के आने के बाद भी कितने शिक्षकों की मानसिकता बदलेगी, कहना कठिन है. अलबत्ता इतना जरूर होगा कि शिक्षक पढ़ाने से डरने जरूर लगेंगे. आजकल के अधिकाँश हाई-स्कूलों के छात्रों में अनुशासन की कमी वैसे भी बहुतायत में देखने को आती है. इसका सबसे बड़ा कारण शिक्षकों की उदासीनता है. इसे "मुझे क्या" सिंड्रोम कह सकते हैं. और वे उदासीन भी क्यों न हों? सारे सदाचरण का, मान-मर्यादा का, सारी नैतिकताओं के ठेके का बोझ तो भारत में शिक्षकों पर लादा जा सकता है. साथ ही उनसे जनगणना, मतगणना, पल्स-पोलियो इत्यादि से सम्बंधित (और शिक्षण से असंबंधित) सारे कार्य कराये जा सकते हैं, पर उन्हें आराम से जीने लायक जायज पैसा नहीं दिया जा सकता है. अधिकाँश शिक्षकों में छुपी कुंठा का सबसे बड़ा कारण यही है. ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है? जब तक इन समस्याओं का जड़ से हल नहीं निकलेगा, ऐसे बिलों को अधिकतर शिक्षक सही परिप्रेक्ष्य में नहीं ले पाएंगे. ऐसा मुझे लगता है (एक शिक्षक होने के नाते).
रैगिंग लेना तो पहले से ही मानवाधिकार कानून के तहत अपराधों की श्रेणी में आ गया है (लगभग पांच साल पहले से). हर साल बहुत से (जैसे कि मेरे पूर्व-कालेज में) कालेजों में एंटी-रैगिंग स्क्वाड का गठन होता है और शिक्षकों को विभिन्न क्षेत्रों में (हॉस्टल, और कुछ क्षेत्र जहाँ छात्र किराये पर रहते हैं, रेलवे-स्टेशन, पार्क इत्यादि जैसे कुछ सार्वजनिक स्थानों में) औचक पहुँच कर जांच करने का आदेश होता है. कड़ी सजा का प्रावधान भी है, पुलिस रिकॉर्ड के साथ, पर फिर भी रैगिंग पर पूरी रोक तो नहीं लग पायी है.
Sir, this is a very nice write up which goes straight to the point. I like it!
ReplyDeleteRegards,
Akshay
bharat aaj ek bahaut hi uljhe avtaar me drishtavya ho raha hai. pashchatya sabhyata ka chadar odhne se andar ki bemari nahi chup sakti.pragiti sahi mayene me hogi uchh vichaaron se , jo ki aaj ke samay mein lupt hoti jaa rahi hai.
ReplyDeleteaaj ke moolya shiksha ka sandesh keval ank ki prapti hai. bachche agar ye lane me kamyaab ho , to mano sab kuch uplabdh kar liya ho. fir pocket money, mobile phone,x-box ,play station, ipod...sari farmaiyeshe poori ki jaati hai.vigyaan ke aalava ki padhai ko chota samjha jata hai..lekin jab har baar ungli aaj ki peedhi par uthayi jati hai, toh ek bahut hi aham savaal man me aata hai-
aaj ke bachhe achanak se itne battameez kaise hue..bade ka aadar karna, aur anya sanskaar kya achanak hi gayab hue??
hamne pashim se mukabla karne mein apne moolya sidhanto ko chod diya...
aur iske zimmedar na keval aaj ki peedhi balki vo bhi jinhone ise panapne diya...
jahan tak bil ka sawaal hoto hai...bharat mein aise kayi jagah hain jahan massom baccho pe atyachaar hota hai, isliye yeh bil uchit hai.
haan jahan tak adhyapak ganno ke darne ka sawaal hai, uska bhi upaye hai.
yeh vahi desh hai jahan satyagraha hua,toh yadi koyi vidyarthi galat kare to awaaz uthaao, mukadma karo...
aaj keval hal bil ke paas hone se nae mil sakta hai..hal tab milega jab peerith vyaktiyon ko ye bharosa mile ki unhe insaaf milega...
saau baat ki ek baat- badal ni hai towoh hai apni soch, apni takat gyaan evam sanskaar ke anokhe mishran se hai..
hehe i hope u follow hinglish
ReplyDeleteअक्षय और तन्वी: आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteतन्वी: आप का कहना बिलकुल सही है कि दोष नयी पीढ़ी पर तो बिलकुल नहीं लादा जा सकता है. नयी पीढ़ी तो नासमझ होती है, उसे संस्कारों की शिक्षा तो उनके बड़ों को ही देनी होगी. ऐसा हो नहीं प् रहा है और इसके लिए उनसे कहीं अधिक जिम्मेदार हैं उनके अभिभावक और उनके शिक्षक. अंकों और प्रतिशत की दौड़, माँ-बाप की स्वयं की व्यस्तता और उससे अपने बच्चों के प्रति उत्पन्न होने वाली सहज अवहेलना और ऊपर से शिक्षकों की उदासीनता ही इस समस्या के मूल कारण हैं.
ReplyDeleteसर, इस कानून को अमेरीकी कानून का अन्धानुकरण करके बनाया गया हो या न हो परन्तु इसकी जड़ केवल मानवाधिकार संगठनो के कारण नहीं हुई है. यह असल में एक और जड़त्व समस्या से जुडी है जो है भारत के स्कूलों में शिक्षकों का गिरता स्तर. शिक्षक एक तो स्कूल में आते नहीं हैं, आते हैं तो कक्षा में पढ़ते नहीं हैं, और जब विधार्थी इसके कारन पढाई में कमज़ोर होते हैं या फिर इसका विरोध करते हैं तो उनकी अमानवीय ढंग से पिटाई की जाती है. अनपढ़ माँ-बाप के ये बच्चे इस अमानवीय व्यवहार से दर जाते हैं और या तो स्कोल छोड़ देते हैं या फिर स्कोल जाकर भी कुछ सीख नहीं पाते.
ReplyDeleteहलाकि आपकी बात में तर्क है की इस कानून का अच्छे और प्रामाणिक शिक्षकों पर दुरुपयोग हो सकता है. शायद इस समस्या को सुलझाने के लिए कोई और थोडा विशिष्ट कानून या फिर स्कूली व्यवस्था के विनियमन (regulation) के लिए किसी और पद्धति का उपयोग करने की आवश्यकता है.
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ReplyDeleteनिखिल भाई,
ReplyDeleteशिक्षा के गिरते स्तर का मुख्य कारण यह है कि आज के कार्पोरेटाईजेशन के जमाने में कारपोरेट जगत के कर्मियों और उन्हें वहाँ तक पहुंचाने वाले शिक्षकों के वेतन में जमीन आसमान का फर्क है.
अन्य शासकीय या गैर-शासकीय कर्मचारियों की तुलना में भी शिक्षकों का वेतनमान कम ही चलता है, और यदि वे किसी निजी कॉलेज के शिक्षक हैं, तब तो भगवान मालिक है. इतना शोषण होता है कि मिसाल बनाई जा सकती है.
स्कूल-कालेजों के शिक्षण में शिक्षक और उसके परिवार को न आज समुचित वेतन मिलता है, न कोई विशेष सुविधाएँ. अपेक्षा शिक्षकों से आज भी वही है जो विष्णुगुप्त चाणक्य के काल में थी - कि शिक्षक ही राष्ट्र का निर्माता होता है.
अब वह समय तो रहा नहीं कि शिक्षक भिक्षा द्वारा स्वयं व अपने परिवार का जीवन-निर्वाह करे. आज तो काम वाली बाई भी बोल देती है कि, "इतने पईसे में इतनाईच मिलेंगा".
आज शिक्षक के लिए अपना काम सही ढंग से करने के लिए क्या उत्प्रेरण है? उस से उम्मीदें तो बड़ी बड़ी हैं कि वह उच्च स्तर का ज्ञान बांटेगा, सदाचार और अनुशासन सिखायेगा, अच्छे संस्कार डालेगा, छात्रों को बुरी आदतों, बुरी बातों और बुरी संगत से बचा कर रखेगा, और तो और, इंजीनियरिंग का शिक्षक है तो छात्रों की नौकरियाँ तक लगवा कर देगा, और सदैव सदाचार का एक पुतला, एक उदाहरण बन कर रहेगा.
क्या उसके वेतन और सुविधाओं के हिसाब से यह न्यायोचित है? शायद तुम्हें न पता हो, मैं ने सुना है कि ऐसे ही कुछ मामले में अभी हमारे कॉलेज के कर्मियों ने पुतला-दहन का आयोजन किया था.
रही बात पिटाई की, तो आज मीडिया तो तलाशता रहता है कि कब कोई शिक्षक किसी छात्र की पिटाई करे या कोई मटुकलाल कोई रसिकता दिखाए. बस, उसका पोस्टर और प्रचार में देर नहीं लगती. तो शहरों में तो इस कानून की आवश्यकता कम ही है, क्योंकि वहाँ तो मीडिया है मोर्चा संभालने के लिए. गाहे-बगाहे खबर लगने पर वह गाँवों में भी जाकर ऐसी अमानवीय पिटाई को पीपली स्टाईल में कवर करने को सदा तैयार रहता है.
पर, सही अर्थों में, गाँवों में, जहाँ इस बिल की सबसे अधिक आवश्यकता होगी, वहाँ से बिरला ही कोई मारपीट की रिपोर्ट करेगा. क्योंकि, या गाँवों में बच्चे अव्वल तो स्कूलों में जाते ही नहीं हैं (बहुत से कारणों से), या तो मास्टर ही स्कूल नहीं आते हैं, और अगर पिटाई हो गई, तो स्कूल जाना बंद कर देते हैं. बात वहीं पर आती है कि बेचारे गांववाले इस कानून का कोई लाभ ले पायेंगे, असल संशय तो इसमें है.