Monday, May 2, 2011

तेरे बिन लादेन: ये गंगाराम की समझ में न आये!




कुछ बातें मेरी समझ में कभी नहीं आती हैं. जी, वैसे भी ज़रा कमजोर बुद्धि का हूँ और चाह कर भी समझदार लोगों की तरह नहीं सोच पाता. अभी कल की ही बात लें. खबर आयी कि बिन लादेन को मार गिराया गया. दस साल से ढूँढा जा रहा था, पर मिलता ही नहीं था. उसे मार गिराने की प्रक्रिया में बहुत सारे गधे, खच्चर, बकरियां और इंसान (इंसान अंत में, क्योंकि आज जान की कीमत के हिसाब से इंसान इसी जगह पर आता है) हमलों में शहीद हो गए, अरबों-खरबों डॉलर (जिनमें मेरे जैसे गरीबों के द्वारा पटाये गए टैक्स के डॉलर भी शामिल हैं) फूँक दिए गए, और बहुत से अमरीकी सैनिक और अफ़सरान घर-बार छोड़ कर दस साल से अफ़गानिस्तान की धूल फांक रहे थे. 

अंजामकार, कल मामला निबटा. बताया गया कि और कहीं नहीं, पाकिस्तान (हाँ जी, बिलकुल, यही अपना वाला पाकिस्तान) की राजधानी से महज ४० मील दूर के एक सैनिक शहर एबटाबाद में जनाब एक आलीशान बंगले में पता नहीं कब से रिहाइश फ़रमा रहे थे. उनके एक भरोसेमंद कासिद (डाकिये - जिन्हें डाकिया शब्द का अर्थ न पता हो, वे हाल के एक जगत-प्रसिद्ध कोर्ट-केस के बारे में पढ़ें) को ढूँढ निकला गया, उसका पीछा कर के जगह ढूंढी गई और अंदाज लगाया गया कि हो न हो, इसी आलीशान बंगले में जनाब बिन लादेन रहते होंगे. पक्का किसी को नहीं पता था, पर तर्क दिए गए कि इतनी बड़ी कोठी, इलाके के दूसरे घरों से तिगुनी बड़ी, पर रिहाइशी किसी से मिलते जुलते नहीं थे. कार से ही आते जाते थे, आमदनी का कोई साफ़  जरिया नहीं दिखता था पर पैसा और खर्च ढेर दिखते थे, औरतें पर्दा करती थीं और अरबी बोलती थीं, दीवालें १४ फीट ऊंची थीं और ऊपर कांटेदार तार लगे हुए थे, कचरा फेंका नहीं, जलाया जाता था. ऊपर से क्लोज़-सर्किट कैमरों के जरिये आसपास की आवाजाही पर नज़र रखी जाती थी. फिर यह भी था कि इतनी बड़ी कोठी, पर कोई फ़ोन या इंटरनेट कनेक्शन तक नहीं? आजकल तो छुटभैये तक ट्विटर-फेसबुक पर तशरीफ़ के टोकरे भर भर कर ले जा रहे हैं. लिहाजा, ऐसा तय मान लिया गया कि हो न हो, शिकार इसी मांद में छुपा हुआ है. बस फिर क्या था, बिलकुल हॉलीवुड की एक्शन फिल्मों की तर्ज पर कमांडो हेलीकॉप्टरों से वाया अफ़गानिस्तान, टू पाकिस्तान आकर  सीधे बंगले की छत पर उतरे. फिर,  धांय... धांय... धांय .... धड़ाम!  और मामला खत्म. लाश उठाई और रवानगी दर्ज की - उलटे पाँव वापस अफ़गानिस्तान. कुछ डी.एन.ए. टेस्ट आदि किये गए और पक्का कर लिया गया कि शेर ही मारा है, गीदड़ नहीं. फिर लाश को चुपके से ले जा कर अरब सागर में कहीं दफ़न कर दिया गया.  ख़याल रहे, यह सब बताया गया.


मुझे याद आयी हाल ही में देखी हुई फिल्म 'तेरे बिन लादेन' की. कहानी अपने पाकिस्तान की ही बताई गई है. उसमें कुछ लोग मिल कर बिन लादेन की शक्ल वाले एक आम इंसान, नूरा का वीडियो बना कर उसके जरिये अमीर बनने की कोशिश करते हैं. एक डायलॉग था - "यार, गोरे इसे तोरा-बोरा में ढूँढ रहे हैं और यह उमरकोट में मुर्गे पाल रहा है!" और देखिये तो, क्या बात है कि असली लादेन मिला आखिर पाकिस्तान में! ख़याल रहे, ऐसा बताया गया. और फिर, फिल्म के अंत में जब नकली बिन लादेन पकड़ा जाता है और भेद खुल जाता है, तब अमरीकी भी इस झूठ में शामिल हो कर दुनिया को बेवकूफ़ ही बनाते हैं. 


अब मैं ये बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि कल वाली कहानी में भी ऐसा ही हुआ है, और मनाता हूँ कि असली लादेन की बजाय कोई बेचारा नूरा चाचा ही सच में न हलाक हो गया हो. पर कुछ बातें मेरी समझ से बाहर हैं. 


हमारे विदेश मंत्री जी ने भी "हम न कहते थे कि वहीं छुपा बैठा है, ठीक हमारे दाऊद की तरह" वाले अंदाज में अपना बयान भी दर्ज किया और चिंता भी जता दी. अब भला ये भी कोई कहने की बात है कि पाकिस्तान के तार कहाँ कहाँ नहीं जुड़े हुए हैं? वैसे यदि अमरीका का मामला न होता और अरबों डॉलर दांव पर न लगे होते, पाकिस्तान हमेशा की तरह बेशक कह देता कि मरने वाला लादेन नहीं, और कोई हमशक्ल था. कारण यह है कि पाकिस्तान दहशतगर्दी (आतंकवाद) का दुश्मन है, ऐन अमरीका की तरह, और हो ही नहीं सकता कि बिन लादेन पाकिस्तान में पनाह पाए. ऐसा कुछ वैसे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री मदाम हिलेरी की पिछली यात्रा के दौरान कह भी चुके हैं कि लादेन और दुनिया में कहीं भी हो, कम से कम पाकिस्तान में तो नहीं है. अब कल के किस्से के बाद पाकिस्तान क्या कहे? शायद - "फंस गए रे ओबामा"! खबर यह भी है कि पाकिस्तानी तालिबान ने लादेन की मौत के बदले पाकिस्तान में कहर बरपाने की बात की है.  भगवान न करे ऐसा हो, पर यह सच हुआ तो पाकिस्तान तो "न खुदा ही मिला न वसाल-ए-सनम" की तर्ज पर दोनों तरफ से गया. दो नावों में पैर रखे रहना कोई सरल काम नहीं है.


अब अपनी छोटी बुद्धि की बात पर आता हूँ. मेरी समझ में ये नहीं आया कि दहशतगर्दी के सख्त खिलाफ रहने वाले पाकिस्तान में, एक सैनिक शहर में ऐसी कोई कांटेदार तारों और कैमरों वाली बहुत बड़ी कोठी बनी (चलिए, माना कि वह कोठी आई.एस.आई. की पनाहगाह नहीं थी), और फिर भी पाकिस्तानी जासूसों को सालोंसाल भनक तक न लगी कि उस कोठी के बाशिंदे हैं कौन? ऐसा तब जबकि बिलाल शहर में उस कोठी के अड़ोसी-पड़ोसी तक समझ गए थे कि माजरा कुछ गड़बड़ है और इस कोठी से दूर रहना बेहतर है. ऐसा भी सुनने में आया है कि अड़ोसी-पड़ोसी तक इस सैनिक कार्रवाई  और हैलीकॉप्टर की उड़ानों के दौरान इस बारे में ट्वीट करने में मशगूल थे पर शहर के तमाम सैनिक और अफ़सर आँख-कान मूंदकर बैठे रहे, और कोई पता करने भी न निकला कि हो क्या रहा है? गूगल मैप देखने से ही समझ में आ रहा है कि यह करोड़ों की हवेली पाकिस्तानी मिलिटरी अकादमी से बमुश्किल आधे मील की दूरी पर है, और शहर में ढेरों पाकिस्तानी रेजीमेंट तैनात हैं. फिर भी ४० मिनट तक की गोलीबारी के दौरान कोई मौके पर नहीं पहुंचा? तो क्या एबटाबाद में मौजूद सैनिक अफ़सरान पहले ही समझ गए थे कि भेद खुल गया है और दूर रहने में ही भलाई है?


मेरी समझ में यह भी नहीं आया कि लाश को ऐसे ऐसे गुपचुप दरिया में गर्क करने की क्या जरूरत थी? और यह दरिया-दफ़न तो इस्लाम के हिसाब से शायद ठीक नहीं है, फिर क्यों? कुछ समझदार लोगों ने कहा कि उसे तो १९९४ में ही देश-बदर कर दिया गया था, और कहाँ दफ़नाते? फिर यह भी है कि २४ घंटों के अंदर उसे दफ़नाना इस्लाम के लिहाज से जरूरी था. वैसे भी कहीं उसका मजार बना कर जिहादियों को यह कहने का मौका कोई नहीं देना चाहता था कि "शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले...". 


यह भी समझ में नहीं आया कि कोई फ़ोटो या वीडियो क्यों नहीं है जिससे साबित हो कि मरने वाला लादेन ही था? इंटरनेट पर बहुत ढूँढा, पर जो मिला, उससे कुछ साबित होता न दिखा. फिर एक वीभत्स सी तस्वीर  देखी, मरे हुए लादेन के चेहरे की. बाद में पता चला कि किसी मनचले ने फोटोशॉप के जरिये भाषण देते लादेन की तस्वीर को उस वीभत्स फ़ोटो का रूप दे दिया था. तब समझदार लोग फिर मेरी मदद को आये. उन्होंने बतलाया कि तुम कुछ समझते नहीं हो. देखो, ऐसे फ़ोटो-वीडियो से जिहादी भड़क जायेंगे और जो जिहादी नहीं हैं, वे भी जिहादी बन जायेंगे, इसलिए ऐसे फ़ोटो-वीडियो को पब्लिक नहीं किया जा रहा है. हमारा मीडिया बड़ा जिम्मेदार किस्म का मीडिया है, ऐसे फ़ोटो-वीडियो नहीं दिखाता. फिर समझदार लोगों ने मुझे डपट दिया - और तुम कैसे अजीब, बेशर्म, दिमागी नुक्स वाले आदमी हो जी, जो इस प्रकार के फ़ोटो-वीडियो देखना चाहता है? बस, मैं सहम भी गया और समझ भी गया.


पर फिर कुछ सवाल आ गए. ये भेजा भी ना, बहुत शोर करता है. सवाल ये आया कि जिहादी तो वैसे भी वही करने वाले हैं जो करने की वे ठाने बैठे हैं, और जो समझदार हैं, वे चाहे जो हो जाए, जिहादी बनने से रहे. फिर इतनी क्या चिंता? यदि सद्दाम के साथ कर सकते थे, तो लादेन के साथ क्यों नहीं?
यह भी पता चला कि लादेन की मौत पर कुछ लोगों ने जश्न मनाया और फिर जब समझदार लोगों ने चेताया कि भागो, तुम्हारे जश्न से नाराज जिहादी बम ले कर आ रहे हैं, तो सारे भाग के अपने अपने घरों में छिप गए. इसमें जश्न मनाने वाली बात से ज्यादा जरूरी सब्र और समझदारी वाली बात है. मेरी समझ में यह भी नहीं आया कि हम कैसे लोग होते जा रहे हैं कि किसी की भी मौत पर जश्न मनाने की सोच सकते हैं, चाहे वह कोई जालिम आवाम-हलाकू ही क्यों न हो?


यह भी समझ में नहीं आया कि इस एक मौत से दहशतगर्दी किसी भी तरह खत्म तो हो नहीं गयी. फिर जश्न किस बात का? ठीक है कि लादेन जिहादियों का आला और अजीमोश्शान नेता था और उसके होने का कुछ मतलब था. पर आज आतंकवाद किसी एक इंसान के इर्द-गिर्द नहीं घूम रहा है, बल्कि फ्रैंचाईज़ के तौर पर हर शहर में खुलने वाली ब्रांचों की तर्ज़ पर चल रहा है. आज के जिहादियों और किसी भी तरह के आतंकवादियों का - चाहे वे भारत के माओवादी या कश्मीरी पत्थरबाज हों, या लिट्टे के चीते हों - कोई एक नेता नहीं है, कोई एक कंट्रोलर नहीं है. जिहादियों के काम करने का तरीका पूरी तरह बदल चुका है और अब मुम्बई २६/११ की तरह के या बहुत छोटे एटमी हमलों पर जोर ज्यादा है, टॉवर उड़ाने की बनिस्बत. साधारण बम बनाना तो लोग इंटरनेट से ही सीख ले रहे हैं, और ट्रेनिंग के लिए किसी भी फंड की कोई कमी नहीं है. ऐसे में एक लादेन के कम होने से मसले में क्या खास फ़र्क पड़ जाएगा? असल जरूरत तो ऐसा माहौल बनाने की है जिसमें नफ़रत जड़ से खत्म हो जाए और आवाम चैन से रह सके. 


एक बात और समझ नहीं आयी. एक तरफ यह कहा गया कि किसी भी देश के साथ इस ख़ुफ़िया खबर को बांटा नहीं गया कि पता चल गया है लादेन कहाँ है और उस पर हमला होना है. दूसरी तरफ यह भी कहा गया कि इस सैनिक कार्रवाई और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान की मदद की तारीफ़ की जाती है. सवाल ये उठा कि यदि पाकिस्तानियों को कुछ पता ही नहीं था, तो उन्होंने मदद कब, कहाँ और क्यों की? और यदि कोई मदद नहीं की, तो तारीफ़ क्यों? क्या मजबूरी में, या पुचकारने के लिए? लगता तो नहीं कि इस से कोई फायदा होने वाला है, सिवाय इसके कि अमरीका को अभी भी अपनी सेनाएं अफगानिस्तान से निकालने के लिए पाकिस्तान से अरब सागर तक का रास्ता चाहिए. क्या यही बात है?


कहीं ये फिर से अरबों डॉलरों की खैरात देने का बहाना तो नहीं है?  ये आख़िरी सवाल सबसे ज्यादा परेशान कर रहा है क्योंकि एक तो मैं हिन्दुस्तानी हूँ और..... दो, इसमें मुझ पहले से ही निचोड़े हुए गरीब के टैक्स के डॉलर फिर से शामिल होंगे.  समझना मुहाल नहीं है कि इन डॉलरों का असल में क्या होता है.


वैसे, हाल में एक मजेदार बात और मालूम हुई है. सुना है एक बार बाहर खेलते कुछ बच्चों की एक गेंद  इस बंगले की चारदीवारी के अंदर चली गई. बंगले वालों ने न बच्चों को अंदर आने दिया, न उनकी गेंद ही वापस की, पर उन्हें नयी गेंद खरीदने के लिए पचास रुपये दे दिए. बस फिर क्या था, पचास रुपयों की खातिर बच्चे जब तब गेंदें किलेबंदी के अंदर फेंकने लगे.  और मजे की बात कि हर बार उन्हें गेंद की बजाय पचास रुपये दे दिए जाते थे. मैंने भी सोचा, पैसे कैसी कैसी तिकड़मों के जरिये बनाए जाते हैं, यह बात महज पाकिस्तान के हुक्मरान ही नहीं जानते, बल्कि वहाँ का बच्चा बच्चा तक जानता है!!