Sunday, June 24, 2012

भाग भाग ........

पहले:
घपले-घोटाले भस्म हो गए
सारी फाइलें हुईं ख़ाक.....
भाग भाग मेरे नेता, मेरे नेता भाग भाग,
मंत्रालय में लगा आया आग
;oP
 
कालांतर  में:
संकट कटे, चैन कर अब
फिर से गा दरबारी राग
....
क्या बिगाड़ लेगा तेरा अब
“जांच” नाम का नाग
 
मना पार्टी, होली-दीवाली
गा "शॉर्ट-सर्किट" फाग,
मत भाग मेरे नेता, मेरे नेता मत भाग

अब तो धुल गए सारे दाग ...!!
 

Friday, June 22, 2012

घपला-एव-जयते?


कहा जाता है कि दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है. इस लिए मेरे वे भाई बहन जो ऐसी एन.जी.ओ. संस्थाएं चला रहे हैं जो निस्वार्थ भाव से जन-सेवा कर रही हैं, मुझे कृपया क्षमा करेंगे. विभिन्न गैर-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) चलानेवालों द्वारा ऐसे ऐसे जघन्य राष्ट्रद्रोही, एजेंडे के अनुरूप और घोर जन-विरोधी कार्य देख चुका हूँ कि अब किसी एन.जी.ओ. संस्था पर देर से और कठिनाई से ही विश्वास कर पाता हूँ. और जब किसी एन.जी.ओ. संस्था के साथ कोई बड़ा या विख्यात नाम जुड़ा देख लेता हूँ, तब तो संदेह दुगुना हो जाता है, क्योंकि बड़े घपले ऐसी ही संस्थाओं से जुड़े देखे हैं. क्या करूँ, बार बार विश्वास किया है और बार बार धोखा खाया है. 

रोहतक, हरियाणा में ‘भारत विकास संगठन’ नामक एन.जी.ओ. संस्था द्वारा संचालित ‘अपना घर’ नामक संरक्षण गृह में चल रहे व्यापक शोषण की कहानी [यहाँ भी] ने तो दिल दहला कर रख दिया है. और विडम्बना तो देखिये, इस एन.जी.ओ. संस्था की संचालिका जसवंती ये सारे आपराधिक कर्म भी करती रही और सरकार और अन्य संगठनों से धन के साथ पुरस्कार भी बटोरती रही. 

पिछले अठारह वर्षों में भारत में चल रही एन.जी.ओ. संस्थाओं को विभिन्न स्रोतों से दस हज़ार करोड रुपयों से भी अधिक की राशि मिली है. मुझे आश्चर्य यही रहा है कि यदि इतना पैसा भारत आया, तो दिखाई क्यों नहीं देता है? कई जानी-मानी एन.जी.ओ. संस्थाओं के खर्चों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि विगत कई वर्षों के आय-व्यय का लेखा-जोखा उन्होंने या तो कहीं दिखाया ही नहीं है, और यदि दिखाया है, तो उसमें ढेरों विसंगतियाँ हैं. खर्च के मदों को देखिये तो पता चलता है कि मिले हुए धन के मात्र २५% को ही समाज-सेवा (या समाज-सेवा के नाम पर जो किया जा रहा है) पर खर्च किया गया है. यदि ७५% धन संचालनकर्ता रख-रखाव पर हुआ भी दिखा रहे हैं, तब भी दस हज़ार करोड रुपयों का २५% भी बहुत सारा धन है, यदि ईमानदारी से समाज-सेवा पर खर्च हुआ हो. मुझे तो नहीं लगता है कि इतना पैसा भी इन संस्थाओं द्वारा खर्च किया गया है. ‘सूचना के अधिकार’ में एन.जी.ओ. संस्थाएं आती नहीं हैं इसलिए उनसे उनके विषय में किसी भी पूछ-ताछ कोई नहीं कर सकता है, खर्च का हिसाब देखने की बात तो भूल ही जाइए. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के स्वयम्भू नेता केजरीवाल, सिसोदिया, किरण बेदी, भूषण द्वय आदि जो खुद कई एन.जी.ओ. चलाते हैं, वे प्रधान-मंत्री तक को लोकपाल के अंदर लाने के लिए जोर लगा रहे हैं, पर कहते हैं कि एन.जी.ओ. संस्थाओं को लोकपाल के अंदर नहीं लाना है. क्यों भई? माजरा क्या है? क्यों नहीं?

ताजा मुहिम में आमिर खान जी अपने कार्यक्रम में कुछ एन.जी.ओ. संस्थाओं को पैसे दिलवा रहे हैं. यदि ये संस्थाएं ईमानदारी से अच्छा कार्य कर रही हैं, तब तो ठीक है, पर क्या जनता द्वारा दिया गया पैसा वहीं जा रहा है, जहाँ बताया गया है, और जहाँ जनता भेजना चाह रही है? मेरे कुछ मित्रों को लगता है कि मैं बेवजह आमिर और उन के द्वारा किये गए अच्छेऔर महान कार्यों का विरोध कर रहा हूँ. ऐसे मित्रों को मैंने हमेशा यही बताया है कि मैं केवल सवाल उठाता हूँ, और वह भी तभी जब मुझे कोई बात तर्क-संगत नहीं लगती है. यहाँ, इस पोस्ट में भी कुछ सवाल ही उठा रहा हूँ.

सत्यमेव जयते का मुख्य वेब पेज: इसी पन्ने में आगे ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट का उल्लेख है.


सत्यमेव जयते का वेब पेज: इस के हिसाब से २४ परगना, पश्चिम बंग का ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट इन के चौथे एपिसोड का एन.जी.ओ. पार्टनर है जिसे एस.एम्.एस. और रिलायंस फाउन्डेशन द्वारा दी हुई दान राशि प्रदान की जानी थी.

[चित्र स्पष्ट न हो तो यहाँ क्लिक करें, और उस के बाद नीचे जा कर संस्थाओं के नामों की सूची देखें]

सत्यमेव जयते का दूसरा वेब पेज: यह भी इसी बात की पुष्टि करता है कि जिसे चौथे एपिसोड से आये धन की सहायता दी जानी थी, वह ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट २४ परगना, पश्चिम बंग वाला ट्रस्ट ही था.


ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट का वेब पेज: इस के हिसाब से यह ट्रस्ट ह्यूमैनिटी ट्रस्ट के छत्र तले आता है.


ह्यूमैनिटी ट्रस्ट का वेब पेज: यह ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट की मातृ-संस्था है.



इस संस्था की गतिविधियों की रिपोर्ट के पन्ने पर कुछ भी नहीं मिला, हालांकि प्रथम पृष्ठ पर कुछ गतिविधियां अंकित हैं.


ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट और ह्यूमैनिटी ट्रस्ट के वेब पेजों को देखा जाए तो दोनों के पते भी एक ही हैं और फोन नंबर भी.


ह्यूमैनिटी ट्रस्ट का दूसरा वेब पेज: यह पन्ना ऐसा दावा करता है कि वे सत्यमेव-जयते या आमिर खान द्वारा बताई गयी वह संस्था नहीं हैं जिसे चौथे एपिसोड के हिसाब से एक्सिस बैंक द्वारा पैसा दिया जाना था.


एक्सिस बैंक का वेब पेज: इस के हिसाब से पैसा २४ परगना के उसी ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट को जाना था जिनके वेब-पेज उपरोक्त हैं.

[चित्र स्पष्ट न हो तो यहाँ क्लिक करें, और एपिसोड संख्या ४ के साथ बताई गयी संस्था की जानकारी को बड़ा कर के देखें]

एक्सिस बैंक का दूसरा वेब पेज: इस के हिसाब से पैसा ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट को दिया तो गया पर पता २४ परगना, पश्चिम बंग का न हो कर मुंबई में अंधेरी (पश्चिम) का एक पता है.


गूगल मैप से देखा हुआ वह पता जिसे एक्सिस बैंक ने पैसे दिए हैं: यहाँ मुझे कोई हस्पताल तो नहीं नज़र आ रहा है. [कोई मित्र आस-पास रहता हो तो कृपया बताए.] गूगल से ढूँढने पर इस पते के हिसाब से ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट नाम की किसी संस्था के बारे में कोई पता नहीं चलता है. 




सवाल एक: आमिर जी की तथाकथित रिसर्च टीम ने ऐसे किसी ट्रस्ट को आखिर ढूँढा कैसे, जिसे गूगल भी नहीं ढूंढ पा रहा?
पश्चिम बंग के ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट के वेब पेज के हिसाब से जो पैसा दिया जा रहा है वह इसी नाम का कोई दूसरा ट्रस्ट है.
यहाँ यह मान कर चलना होगा कि इस कथन का मतलब यही है कि उस दूसरे ट्रस्ट का पश्चिम बंग के ह्यूमैनिटी ट्रस्ट से किसी प्रकार का लेना-देना नहीं है, अन्यथा पश्चिम बंग के ह्यूमैनिटी ट्रस्ट के वेब पेज पर यह लिखा होता कि पैसा एक अन्य सहयोगी संस्था को गया है, सीधे उन्हें नहीं.

सवाल दो: यदि अंधेरी पश्चिम के इस पते पर किसी ट्रस्ट का ऑफिस है, तो भुगतान में “Payment to Shopping Mall” क्यों है? [चलिए, हो सकता है कि बैंक किसी को भी पैसों का भुगतान करते समय जो चालान छापता है, सभी में यही लिखा होता है, फिर भी शॉपिंग मॉल के नाम से संदेह तो हो ही सकता है.]

सवाल तीन: और जैसा कि पश्चिम बंग के ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट के वेब पेज पर लिखा है कि उनके ट्रस्ट को कोई पैसा आमिर या उनकी टीम या सत्यमेव-जयते द्वारा नहीं मिला, तो आमिर, उनकी टीम और एक्सिस बैंक अपनी वेब साईट पर पश्चिम बंग के ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट को पैसे देने की बात क्यों कर रहे हैं?

सवाल चार: आप के और आप जैसी बहुत सारी भोली भाली भावुक जनता की गाढ़ी कमाई लगा कर किये हुए लाखों एस.एम्.एस. का पैसा दरअसल गया कहाँ?

सबसे बड़ा सवाल: क्या पैसा असल में वहीं गया जहां आप भेजना चाह रहे थे? 

किसी को ठीक जानकारी हो तो कृपया यह गुत्थी सुलझाने में सहायता करें.

Sunday, June 17, 2012

अर्ध-सत्यमेव जयते? [भाग – 2]


दहेज पर एक बहुचर्चित मुक़दमे का निर्णय 'सत्यमेव जयते' के इस तीसरे एपिसोड के प्रसारित होने से कुछ महीने पहले ही आया था. आमिर ने इस मुक़दमे या इस के निर्णय पर भी अपने कार्यक्रम में कोई चर्चा नहीं की जबकि मेरे विचार में यह प्रासंगिक है. यह मुकदमा नॉएडा की निशा शर्मा ने अपने होने वाले पति मुनीश और उस के परिवार पर दायर किया था. निशा ने अपनी शादी के दिन अपने घर पहुँच चुकी बारात लौटा दी थी और मुनीश और उस के परिवार वालों पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने उस के पिता से दहेज की मांग की थी. निशा द्वारा इन आरोपों के साथ शिकायत करने पर मुनीश और उसके परिवार वाले गिरफ्तार कर लिए गए थे और उन्हें जेल में भी बहुत दिन बिताने पड़े. इस बीच दहेज के खिलाफ लड़ने वाली नायिका बता कर निशा की देश-विदेश में बड़ी प्रशंसा हुई, उसे पुरस्कार दिए गए [ अधिक जानकारी यहाँ] और वह ओपरा विनफ़्री के कार्यक्रम और कार्यक्रम “६० मिनट” [अधिक जानकारी यहाँ] तक में प्रस्तुत हुई. 

निशा से सम्बंधित खबरें २००३ में कुछ दिनों तक तो अखबारों के मुखपृष्ठ पर आती रहीं, फिर जब कुछ विरोधाभासी बातें सामने आने लगीं, तब मीडिया ने इस मामले से कन्नी काटना शुरू कर दिया. तब से अब, नौ वर्षों तक यह तथाकथित दहेज मुकदमा चलता रहा. इस साल, २०१२ की फरवरी में निचले कोर्ट ने केस को खारिज कर दिया और मुनीश, उनके परिवार और नवनीत राय (जिस ने निशा से पहले ही शादी कर लेने का दावा किया था) को बरी कर दिया. अधिक जानकारी के लिए ये लिंक देख लें.

यहाँ मैं न तो यह अनुमान लगाने का प्रयास करूँगा कि असल में क्या हुआ था, न किसी भी पक्ष को दोषी या निर्दोष करार देने का, और न ही माननीय अदालत के फैसले पर कोई भी टिप्पणी करने का. कुछ सवाल मेरे लिए अनुत्तरित हैं, बस कारणों सहित उन्हें प्रस्तुत करूँगा और इस पूरे वाकये से मिले सबकों को भी.

असल बात तो पता नहीं, पर यह तय है कि तब निशा की बड़ी प्रशंसा हुई थी और उन्हें आयरन लेडी तक का खिताब दिया गया, पर अब तय कर पाना कठिन है कि क्या वह सब सच था जो हमें मीडिया ने तब बताया? [अधिक जानकारी यहाँ]

यह भी तय है कि मुनीश और उन के परिवार को इन नौ वर्षों में बहुत कुछ सहना पड़ा. उन्हें जो झेलना पड़ा, वह तो सरल नहीं ही था, पर कुछ बातें तो विशेष रूप से शर्मनाक हैं और मुनीश और उन के परिवार के साथ स्पष्ट अन्याय हैं. मामले के अदालत में रहने के दौरान ही, कुछ महीनों के भीतर २००४ में एस.सी.ई.आर.टी. की कक्षा छठी की पुस्तक में दहेज की कुरीति के विषय में जानकारी देने के लिए एक अध्याय डाला गया. इस अध्याय में निशा शर्मा की कहानी बताई गयी जिस में निशा को नाम से नायिका बनाते हुए, और दलाल परिवार को पूरे नाम-पते के साथ खलनायक के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया. अब यह तो अति है कि मामला अदालत में विचाराधीन था पर कतिपय जिम्मेदार लोग निर्णय ले कर दलाल परिवार को दोषी और निशा को प्रेरणा-स्रोत नायिका मान भी चुके थे. यदि वास्तव में दलाल परिवार निर्दोष है, तब इस अध्याय को पुस्तक में डालने वाले शिक्षा जगत के महान निर्णयकर्ता अपनी करनी से हुए घोर अन्याय को अनकिया कैसे कर पाएंगे? [अधिक जानकारी यहाँ]  

और अमूल के बारे में क्या कहूँ? अमूल मक्खन के चुटकी-भरे मजेदार विज्ञापनों का मैं भी प्रशंसक रहा हूँ, पर यहाँ अमूल के विज्ञापन बनाने वाले एक बड़ी चूक करते हुए यही गलती दोहरा गए. मेरे विचार में यह उन्हें नहीं करना चाहिए था क्योंकि यदि दलाल परिवार निर्दोष है, तो यह उन के साथ बड़ा क्रूर मजाक है. [यहाँ से साभार]


नवनीत राय को कभी तो निशा के पिता एकतरफ़ा प्रेमी बताते हैं, तो कभी दलाल परिवार द्वारा खड़ा किया हुआ झूठा गवाह, तो कभी वे यह भी स्वीकार करते है कि पहले नवनीत और निशा में प्रेम-सम्बन्ध था जो टूट गया था. [अधिक जानकारी यहाँ] वे यह भी स्वीकार करते हैं कि पहले वे नवनीत के घर स्वयं निशा के पिता निशा की शादी का प्रस्ताव ले कर गए थे. पर बाद में उन्होंने विज्ञापन के जरिये दिल्ली के दलाल परिवार से निशा के विवाह की बात चलाई. यह बात भी सामने आयी है कि शर्मा परिवार को नवनीत द्वारा इस बहुचर्चित विवाह समारोह में विघ्न डाले जाने का अंदेशा था और उसे ऐसा करने से रोकने के लिए निशा के पिता पुलिस में शिकायत पहले ही कर चुके थे. असल बात क्या है, मुझे विस्मय है. क्या नवनीत का निशा से इस प्रकरण के पहले ही शादी कर लेने का दावा सही है? नहीं तो अदालत ने नवनीत को निशा के साथ अपनी शादी के झूठे शपथपत्र के आरोप से क्यों बरी कर दिया है? जब तक अदालत का विस्तृत आदेश पढ़ने को नहीं मिलेगा, ये सवाल शायद बने रहेंगे. या शायद उस के बाद भी!

मैं कुछ और कहूँ, इस से पहले इस पोस्ट में विख्यात समाज-शास्त्री मधु किश्वर जी ने इस विषय में बहुत पहले ही जो लिखा था, उस पर एक नज़र अवश्य डाल लें. [पूरा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें]

निशा का इस घटना के डेढ़ महीने के बाद रेडिफ़ को दिए एक साक्षात्कार में कहना था कि शादी के समय से पहले दलाल परिवार द्वारा दहेज की कोई मांग नहीं की गयी थी. यह साक्षात्कार इस घटना के बहुत समय बाद दिया गया था और निशा के पास यह पता करने के लिए पर्याप्त समय था कि शादी से पहले ऐसी मांग थी या नहीं. [स्रोत]

What prompted you to call the police -- they insulting your father or the dowry demand?
Both.
But in principle you and your parents had agreed to give them the dowry. The problem came only when they asked for more.
No, they had not demanded anything. My dad was giving everything on his own. It is called streedhan, not dowry. They demanded the money only at the last minute.

वहीं अब परिचर्चा में उनके पिता कहते सुने गए हैं कि शादी से पहले भी ऐसी मांग थी और इस के सबूत के तौर पर उनके पास फोन रिकार्डिंग हैं. क्या निशा और उन के पिता के कथनों में विरोधाभास नहीं है? और फिर यदि ऐसी रिकार्डिंग है, तो मुझे यह समझ नहीं आया कि अच्छे मन से अपनी बेटी की शादी कर रहे एक पिता को ऐसी रिकार्डिंग कर के रख लेने की बात कैसे सूझी? निश्चित रूप से इस रिकार्डिंग को कर के रख लेने के पीछे कोई उद्देश्य तो रहा ही होगा. क्या ऐसी रिकार्डिंग का बाद में उपयोग करने की, और दलाल परिवार के खिलाफ प्रमाण जुटा कर रखने की कोई योजना पहले से थी? थी तो किसलिए? क्या फंसाने के लिए? वर्ना रिकार्डिंग क्यों?

साक्षात्कार की इन्हीं पक्तियों से यह भी स्पष्ट है कि शर्मा परिवार शादी में जो १८ लाख का सामान अपनी और से देने को तैयार था उसे निशा या उसका परिवार दहेज नहीं मानते. इस के विषय में उन्होंने न कोई विरोध दर्ज किया न कोई मुकदमा. उनका कहना था कि उनका विरोध शादी के समय की गयी मांग से है जिसे वे दहेज मानते हैं. अपनी तरफ़ से निशा और उस के परिवार वाले जो १८ लाख का सामान देने को तैयार थे, उसे वे दहेज नहीं, अपनी मर्जी से दी जा रही भेंट कहते हैं. दहेज का तो लेना और देना, दोनों ही कानूनन जुर्म है. उनकी यह सोच क्या आश्चर्यजनक नहीं है? दूसरी ओर, जैसा कि मधु किश्वर जी ने कई बार कहा है - क्या दहेज देने के जुर्म में शर्मा परिवार भी क़ानून का अपराधी नहीं है? निशा शर्मा और उन के परिवार वाले “भेंट” में दिए जा रहे सामन को तो मर्जी से दिया बता सकते हैं, पर यह बात समझ नहीं आती कि हर भेंट डुप्लिकेट में थी, तो इसे कैसे मर्जी से दिया जाना कहा जा सकता है? खैर, ये सवाल तथ्यों के अभाव में केवल मेरे खोजी मन की उपज हैं और विस्मय पैदा करते हैं.

मधु जी का कहना है:

Both Nisha and her father repeatedly justified the Rs. 18 lakh expenditure on dowry by saying they were not against 'voluntary giving' but were opposed to 'dowry demands'. Nobody bothered to ask them by what stretch of imagination they could describe a whole range of expensive gadgets for the elder brother's family as 'voluntary gifts' for Nisha.
An unusual aspect of this conflict over dowry was that certain items like a home theatre system, refrigerator, air-conditioner and washing machine had been purchased in duplicate - one set for Nisha and her husband and a second set for the groom's elder brother and wife. The justification given for this second dowry was that the groom's mother had demanded these additional items so that the standard of living of the two brothers would not vary too much. Apparently the first brother's wife comes from a family of modest means. Therefore, Nisha's father was expected to bridge the gap in the standard of living of the two brothers. Whatever the truth of the matter on that front, neither Nisha nor her father hid the fact that the family had already spent Rs. 18 lakh on buying all these goods. Thus, even as per Nisha's version, the fight was over the alleged additional demand of Rs.12 lakh, not over the giving of dowry per se. Nisha's father is reported to have told the press that they had even tape-recorded earlier phone conversations with the groom's family after they had begun making more and more demands for dowry.
The bottom line is that Nisha, like millions of other people, believes that the voluntary giving of gifts and wealth - whatever be the amount - is perfectly legitimate, while anything demanded by the groom's family ought to be treated as an offence against the law if it exceeds the paying capacity of the bride's family or goes beyond their willingness to comply. If that is the social and legal consensus, if that is how law is actually enforced, if the dowry prohibition law comes into play not when dowry is being given or taken but only when the bride's family levels charges of coercion and blackmail, then logic demands that we scrap the anti-dowry law since extortion is in anyway a criminal offence under the Indian Penal Code (IPC).

विस्तृत जानकारी के लिए मधुजी का ‘मानुषी’ में लिखा हुआ लेख पढ़ें. मैंने इस पूरे घटनाक्रम से जो सबक लिए हैं, उन्हें आप के साथ साझा करना चाहूँगा.

सबक एक: याद रहे, विवाह सम्बंधित कानूनों में एक अजीब सा पेंच है. यदि लड़की के घर वाले अपनी ओर से "लड़की को" कुछ देना चाहें तो उसे स्त्री-धन करार दिया जा सकता है. दहेज की परिभाषा अलग है, और वह यह है कि माँगा जाए, तो दहेज है. पर बाद में यदि कोई शिकायत होती है, तो बहुधा देखा जाता है कि परिभाषाएँ गयीं एक तरफ़, और सब कुछ दहेज में गिना दिया जाता है. क़ानून के हिसाब से तो परिवार या मित्र भी जो वैवाहिक भेंट देते हैं, उसे भी दहेज में बिलकुल गिना जा सकता है. तो पहला सबक यह है कि विवाह से पहले, विवाह और वैवाहिक जीवन से सम्बंधित सभी कानूनों को बहुत अच्छी तरह जान-समझ कर अपना लोकाचार नियंत्रित करने की सख्त आवश्यकता है. थाने-कचहरी के चक्करों से बचने के लिए यह बहुत ही जरूरी है, क्योंकि आप चाहे निर्दोष हों, मुक़दमे का निर्णय आने में वर्षों बीत जायेंगे.

सबक दो: दहेज के लेन-देन से भी बचने की आवश्यकता है और ऐसी बातों की चर्चा से भी बचने की आवश्यकता है. आज के छोटे छोटे रिकार्डिंग उपकरणों के समय में कब कौन क्या रिकार्ड कर ले और किस मौके पर उस का ब्रम्हास्त्र की तरह उपयोग करे, कोई ठिकाना नहीं. आज हर किसी के लिए ऐसी परिस्थितियों से बच कर रहने की और खुद को सुरक्षित करते चलने की आवश्यकता है.

सबक तीन: पुनश्च - क़ानून समझ लें. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था कि यदि शादी ही नहीं हुई, तो इस मामले में आरोपियों पर ४९८-अ की धारा लगी कैसे? यह तो वह धारा है जो कि पीड़ित पत्नी अपने पति पर लगाया करती है. यदि बरात ही लौटा दी गयी, तो फिर न तो दूल्हा पति बना और न ही दुल्हन पत्नी बनी. फिर यह क़ानूनी धारा कैसे लगायी गयी? क्या कोई गलती हुई? जी नहीं, ध्यान रहे, विवाह संपन्न न भी हुआ हो, तो भी यह धारा लगाई जा सकती है. [देखें

समय खराब है, आज बहुत संभल कर चलने की बड़ी आवश्यकता है. आश्चर्य इस बात पर है, कि क्या इतने प्रचारित मामले भी झूठे हो सकते हैं? मिलती-जुलती समस्याओं वाले डेढ़-डेढ़ घंटों के दो पूरे एपिसोडों में कहीं भी आमिर खान जी ने ऐसे मामलों के विषय में तो बात उठाई तक नहीं है!! 

है न अर्धसत्य? कि नहीं??


.......जारी रहेगा