Wednesday, May 23, 2012

अर्ध-सत्यमेव जयते?

चटपटे चटखारे की चटपटी पोस्टों से परे, इस बार कुछ गंभीर बातें कहना चाहूँगा. पिछले रविवार आमिर खान जी के टी.वी. कार्यक्रम “सत्यमेव-जयते” का तीसरा भाग देखा. कार्यक्रम के पहले दोनों भागों की ही तरह आमिर जी के मर्मस्पर्शी भाषण और दिल को छू लेने वाले गीत के साथ यह भाग (एपिसोड) शुरू हुआ. इस बार आमिर हमारे समाज में व्याप्त एक और कुरीति - दहेज (या जहेज) को ले कर उपस्थित हुए थे. पहले के दो भागों की तरह कुछ भुक्तभोगियों की कहानियाँ और आपबीतियाँ बताई गयीं. सन्देश यही देने की कोशिश की गयी कि दहेज समाज के नाम पर कलंक है और इस से जीवन बर्बाद और समाप्त भी हो जाते हैं. इस कुप्रथा का हमारे युवाओं को पुरजोर विरोध करना चाहिए और यह प्रण करना चाहिए कि वे स्वयं भी दहेज न तो लेंगे, न देंगे. मैं इस सन्देश का पुरजोर समर्थन करता हूँ. यह भी बता दूं कि मेरा अपना विवाह बिना किसी दान-दहेज के हुआ था. इसे मैं कोई विशेष या प्रचारित करने लायक बात नहीं मानता; केवल इसलिए बता रहा हूँ कि इस पोस्ट में, और अगली कुछ कड़ियों में मेरे विचारों को पढ़ने के बाद मेरी बातों को सही परिप्रेक्ष्य में, इस एक जानकारी के साथ संज्ञान में लिया जाए. मुझे इस बात का भी अहसास है कि एक पुत्री का पिता होने के क्या मायने होते हैं.

कार्यक्रम ठीक था, आवश्यक था, समाज पर एक कलंक को समाप्त करने की दिशा में एक सराहनीय प्रयास था, पर यह भी कहूँगा कि कार्यक्रम की कुछ बातें खटक गयीं. दिल्ली की एक पढ़ी लिखी युवती ने अपनी आपबीती में बताया कि उन्हें शादी के बाद उन के पति अमरीका ले गए और वहाँ भी उन्हें और उन के माता-पिता को दहेज के नाम पर सताते रहे. उन्होंने यह भी बताया कि उन के पति एक बार उन्हें घर में छोड़ गए और उन्हें चार दिनों तक खाना या पानी तक नसीब नहीं हुआ. और भी बहुत से अमानवीय अत्याचार हमारी इस बहन/बेटी ने दहेज के कारण सहे. इस उदाहरण से आमिर जी ने बताना चाहा कि दहेज की सबसे पहली ही मांग को सख्ती से ठुकरा देना चाहिए और ऐसी जगह रिश्ता ही नहीं करना चाहिए. बहुत सही, आवश्यक और सटीक सन्देश है. फिर भी, जितना कुछ उस एपिसोड में सामने आया, उस से कुछ बातें स्पष्ट नहीं हो पायीं और कुछ गले नहीं उतरी. मैं यह कतई नहीं कहना चाह रहा हूँ कि हमारी इन बहन/बेटी ने झूठ बोला. और यह भी कहूँगा कि यदि उन के साथ वह सब हुआ जो उन्होंने बताया, तो बहुत गलत हुआ, और ऐसा करने वाले कड़ी सजा के पात्र हैं. 
जो बातें कुछ समझ नहीं आयीं, उन में से मुख्य बात यह थी कि वे चार दिनों तक प्यासी रहीं क्योंकि उन के पति वाटर फ़िल्टर तक निकाल कर अपने साथ ले गए थे. आप को बता दूँ कि मैं स्वयं अमरीका में ही विगत चार वर्षों से नल से घर में प्रदाय किया जाने वाला साधारण पानी पी रहा हूँ. वैसे तो अमरीका में वाटर फ़िल्टर बेचने और उपयोग करने वाले बिना फ़िल्टर किया पानी पीने के पीछे बहुत से रोग भी गिना देते हैं, पर यदि वह सब हम मानने लगें तब तो दूसरे बहुत से अध्ययन यह भी बोल देते हैं कि कहीं का भी पानी पीने योग्य नहीं है, यहाँ तक कि फ़िल्टर का भी! और अमरीका में मुझ जैसे बहुत से लोग ऐसे हैं जो बिना कभी बीमार पड़े सीधे ही नल का पानी पीते आये हैं. वर्ना ऐसे तो देस में कहीं का भी, कैसा भी पानी नहीं पी सकेंगे. एक और बात यह भी थी कि वे चार दिनों तक भूखी रहीं. इस बात को अगर सच माना जाए तो इस के कुछ मायने निकलते हैं. 
एक तो हमारी इन बहन/बेटी ने यह भी बताया था कि उन के पास घर की चाबियाँ भी नहीं थीं इस लिए वे घर छोड़ कर नहीं निकल सकती थीं. यहाँ यह बता दूँ कि ऐसी किसी परिस्थिति में फँसने जैसी कोई बात नहीं है, और अपने मकान मालिक या कम्युनिटी के ऑफिस से आप बंद घर खुलवाने में सहायता ले सकते हैं क्योंकि आप के घर की एक चाबी उन के पास भी होती ही है. पर चलिए, कठिन तो है पर मान लेता हूँ कि उन्हें या तो इस का पता नहीं था या इस विषय में वे किसी से जानकारी नहीं ले पाईं. 
पैसों की समस्या के लिए छोटा मोटा उधार लिया जा सकता था.  यदि इस वजह से वे खाना लेने नहीं जा सकीं तो इसका मतलब यह है कि वे अड़ोस-पड़ोस में भी किसी को भी नहीं जानती या पहचानती थीं कि किसी से मदद ले सकें, किसी को बाजार भेज कर कुछ बुलवा सकें, या घर किसी के भरोसे छोड़ कर कुछ खरीदारी कर सकें. यह भी माना जा सकता है कि शहर/देश में और किसी से उनका कोई परिचय नहीं था, किसी के साथ उठना बैठना नहीं था, कोई मित्र नहीं था/थी और न तो उन के पास गाड़ी थी, न उसे चलाने का लाइसेंस था. पर यदि अंतिम उपाय के रूप में हमारी इन बहन/बेटी ने ‘महिला शरणस्थली’ को फोन किया, तो यह तय है कि वे इस व्यवस्था के विषय में जानती थीं. चलिए, ऐसा भी मान लेते हैं कि वे इस संस्था से तब तक नहीं संपर्क करना चाह रही थीं जब तक अति न हो जाए. 

किसी भी सभ्य देश की तरह अमरीका में भी महिलाओं और बच्चों (या कैसे भी नागरिकों) की सुरक्षा और सहायता के लिए संस्थाएं हैं और बहुत अच्छी व्यवस्थाएं हैं. साथ ही उल्लंघन करने वालों के लिए कड़े क़ानून हैं, शायद भारत से कहीं अधिक कड़े, और उनका सख्ती से पालन होता है. अब अमरीका आने वाले हम देसी और कोई बात शायद देर से जान या समझ पायें, पर यदि हम एक ध्येय ले कर जीविकोपार्जन या विद्यार्जन के लिए यहाँ आये हैं, तो यह बात सब से पहले समझते हैं कि यहाँ विदेशी हो कर रहते हुए यहाँ के क़ानून को अपने खिलाफ कुछ भी करने का यथासंभव कोई भी मौका हमें देने का कारण नहीं बनना है. यदि हमारी इन बहन/बेटी के पति महोदय ने वह सब किया जिसका अब वे आरोप लगा रही हैं, तो यह उन महोदय की मूर्खता की पराकाष्ठा का ही परिचय है. पर वे कितने भी लालची क्यों न हों, यदि उनकी पत्नी ने कहीं ९११, पुलिस या ऐसी किसी संस्था को मात्र एक शिकायती फोन कर दिया तो उन के साथ क्या क्या होगा, वे यह न जानते हों, ऐसा मैं नहीं मान सकता. और यदि ऐसा फोन हो गया तो वह उन के समाप्त होने की महज शुरुआत होगी, ऐसा वे नहीं समझते हों, इस पर विश्वास करना भी ज़रा मुश्किल है, खास तौर पर जब वे साल के ६५००० डॉलर (इस राशि के विषय में बात करते समय हर एपिसोड के करोड़ों लेने वाले आमिर ने जैसा विस्मय जाहिर किया, वह भी अजीब और नाटकीय लगा) कमाने वाले ऐसे अस्थायी दक्ष-कर्मी हैं. ऐसे दक्ष-कर्मियों का पूरा लेखा जोखा दोनों देशों की सरकारों के पास होता है, क्योंकि वे यहाँ किसी कबूतरबाजी के रास्ते चुपचाप नहीं घुस कर रह रहे होते हैं. हाँ, यह हो सकता है कि उन्हें भारतीय नागरिक होने के बावजूद भा.द.वि. की धारा ४९८-अ के विषय में जानकारी न हो, पर उन्हें यदि यह नहीं पता है कि भारत में दहेज प्रताड़ना के खिलाफ कोई न कोई क़ानून है, जो बड़ा सख्त है, तो वे दशकों से सोये रहे होंगे या किसी जंगल-पहाड़ पर ही रहते आये होंगे. और वे सदा अमरीका में ही भारतीय क़ानून से बच कर रहेंगे और उनके भारत लौटने की कोई सूरत ही नहीं हो सकती, ऐसा वे सोचते होंगे, यह मानना भी मुश्किल है. हम देसी अमरीका के अंदर घुसने, यहाँ से बाहर जाने, इस से सम्बंधित स्वीकृतियाँ और वैधता, पासपोर्ट रद्द होना, निर्वासन या देशनिकाला आदि क्या होता है, इतना तो कम से कम जानते ही हैं. 

इस के अलावा यह भी अजीब लगा कि भारतीयों की इतनी बड़ी संख्या में यहाँ होने के बाद भी, दिल्ली की हमारी इन पढ़ी-लिखी बहन/बेटी का अपने शहर या फिर पूरे अमरीका में कोई भी परिचित नहीं था जिस से वे अपनी कहानी कह सकतीं या सहायता मांग सकतीं. चलिए यह फिर भी माना जा सकता है कि ऐसा था. पर यह देश ऐसा भी अति-व्यकिवाद और उदासीनता या बेरुखी के चलन वाला नहीं है कि यह मालूम हो जाए कि सहायता मांगता हुआ कोई अनजान दिनों का भूखा है इस के बाद भी उसे भूख से मरने दिया जाए. यहाँ भी आप के पड़ोस में यदि कोई देसी नहीं, तो अमरीकी रहता (या रहती) हो, तो उस से साधारण शिष्टाचार के तहत भी कम से कम दुआ सलाम तो हो ही जाया करती है (यदि आप कम से कम इतना व्यवहार तो जानते-समझते हों). आश्चर्य है कि हमारी इन बहन/बेटी को महिला सहायता संस्था को फोन करने से पहले ऐसे किसी का भी ख्याल नहीं आया और वे चार दिनों तक भूखी-प्यासी रहीं. स्मरण रहे कि हम दिल्ली की एक पढ़ी-लिखी, समृद्ध परिवार की कन्या के विषय में बातें कर रहे हैं. यदि ऐसी भी कन्याएँ हैं, तो हमें सारे देश में अपनी बेटियों/बहनों को महत्वपूर्ण जानकारियाँ देने के विषय में अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है. मेरी एक मित्र दिल्ली की एक ऐसी ही अपनी मित्र के विषय में बता रही थीं जो पढ़ी-लिखी, कामकाजी होने के बाद भी वैवाहिक जीवन में दुखी होने की बात मित्रों को बता पाती हैं, पर अपने माता-पिता को मात्र इस डर से कुछ भी नहीं बता रही हैं कि कहीं उन्हें सदमा न पहुँचे. तो निष्कर्ष यही है कि, ऐसा हो तो सकता है. साथ ही हो सकता है कि सारी बातें सामने नहीं आ पाईं, और अधूरे प्रस्तुतीकरण के कारण बहुत से सवाल अनुत्तरित रह गए. हो सकता है कि वे बहुत समय यहाँ नहीं रहीं और यहाँ के रहन-सहन और व्यवस्था को समझ नहीं पायीं. या हो सकता है कि वे सहनशील होने के साथ साथ अत्यधिक संकोची, शर्मीली या डरी-सहमी रहती थीं. जो हो, मेरी पूरी सहानुभूति उनके साथ, यदि उन की सारी बातें सच हैं तो.

फिर से कह दूं, यह केवल वे बातें हैं जो मुझे सरलता से विश्वास कर लेने लायक नहीं लगी. यदि फिर भी सचमुच ऐसा हुआ है और उन की कही सारी बातें सही हैं, तो आमिर जी को कुछ सन्देश और भी देने चाहिए थे, ऐसा मैं स्वयं एक बेटी का बाप होने के नाते सोचता हूँ. इन में से एक यह है कि हर बेटी (विवाहित और अविवाहित, दोनों पर लागू) के बाप को, अपनी बेटी को परदेस रवाना करने से पहले उस के लिए विपत्ति में काम आने वाली ऐसी धनराशि का इंतज़ाम करना चाहिए, जिस के विषय में केवल उस की बेटी को पता हो, दामाद या ससुराल पक्ष को नहीं – और जिसे उस की बेटी अपने परिवार को बताए बिना उपयोग कर सके. यहाँ यह याद रहे कि छोटे मोटे कारणों से मनमुटाव कर के वापस भारत आ जाने वाली बहुओं की भी संख्या कुछ कम नहीं है, इसलिए मेरा ऊपर का सुझाव सिर्फ उन समझदार बेटियों के लिए था, जो सच में विदेश में पैसों के लिए मोहताज हो गयी हों और उस का उपयोग ही करने वाली हों, दुरूपयोग नहीं. इस के अलावा, संभव हो, तो विपत्ति आने पर किन किन से उस शहर/देश में संपर्क किया जा सकता है, ऐसे लोगों की सूची अपनी बेटी को अवश्य देनी चाहिए. ऐसे लोगों को भी यह जानकारी दे कर और उन से अनुमति ले कर रखनी चाहिए कि उन से सहायता संपर्क करने की नौबत आये, तो उन से संपर्क किया जायेगा (यदि कभी-कभार सामान्य सम्पर्क नहीं होने वाला हो तो).

इस के अलावा जो बात अजीब लगी वह थी “पकडुआ ब्याह” (या "चोरवा ब्याह") वाले मामले पर चर्चा की. आमिर जी ने यह दिखाने से भी पहले, कि यह एक विवाह-योग्य लड़के का अपहरण कर के किसी अनजान कन्या के साथ उसके जबरदस्ती विवाह कर देने का मामला है, हमें यह बताया कि यह विवाह कितना सफल है. इस के बाद असल कहानी बतायी गयी, एक आपबीती के रूप में, जिस में केवल यही सामने आया कि इस जबरन विवाह के सफल होने के पीछे का कारण यही था कि लड़के ने समझौता किया और लड़की को अपना लिया. जिस मजाकिया अंदाज़ में आमिर ने यह प्रस्तुत किया, उस से ऐसा लगा कि वे उनके अपने विचार में एक बढ़िया समाधान भी बता रहे थे और दहेज-लोलुप वर-पिताओं को चेतावनी भी दे रहे थे, हालांकि उन्होंने शब्दों के द्वारा यह नहीं कहा. आमिर जी जो भी कहें, मैं इसे मानवाधिकार का हनन और उस लड़के पर एक तरह का बलात्कार ही कहूँगा. मुझे यह उदाहरण एक ऐसा बलात्कार लगा, जिस की पैरवी यह कह कर की जा रही थी कि यदि आप बलात्कार का विरोध नहीं कर सकते, तो उस का मजा लीजिए ना. ऐसे पकडुआ विवाहों के विषय में मैं ने पहले भी बहुत सुना है. आमिर जी ने जो बात हमें यहाँ नहीं बताई, वह यह थी कि ऐसे पकडुआ ब्याहों को अंजाम देने के बाद अपहरणकर्ताओं द्वारा वर को सुहागरात के लिए जबरन नशे में लाने, और फिर उसे नामर्द बता कर नाराज कर के उकसाने जैसे कुछ मानसिक हथकंडे अपना कर शादी सम्पूर्ण करवा दी जाती है. इस के पश्चात सख्त शब्दों में वर और उस के घर वालों को चेतावनी भी दी जाती है, कि अब हम ने ब्याह करा दिया और ये दोनों पति-पत्नी हुए. यदि भविष्य में इस लड़की की तरफ़ से ज़रा भी शिकायत आयी, तो ४९८ तो बाद में लगेगा, हम पहले ही न पूरे परिवार को उड़ा देंगे. ऐसे विवाह सही अर्थों में समझौता भी नहीं हैं, बल्कि विवाह नाम की पवित्र संस्था का एक अलग तरह का मखौल-मात्र हैं, चाहे दहेज की समस्या का नाम दे कर इन्हें कितना भी जायज ठहराने का प्रयास आमिर जी जैसे बुद्धिजीवी कर लें. 

सब से बड़ी बात जो खटकी, और जिस पर मुझे घोर आपत्ति है, वह यह है कि आमिर जी ने दहेज क़ानून, घरेलू हिंसा क़ानून और ४९८-अ के व्यापक दुरुपयोगों पर एक शब्द तक नहीं कहा. क्या आप को पता है, कि वैवाहिक जीवन की समस्याएँ, जिन में दहेज और प्रताडना भी मुख्य कारण हो सकते हैं – के कारण प्रति वर्ष जितनी वधुओं के जीवन का अंत होता है, उस से दुगुनी संख्या उन पतियों की है, जो प्रतिवर्ष प्रताड़ना के झूठे मामलों में फंसाए जाने की वजह से आत्महत्या कर लेते हैं? इस विषय में और भी ऐसे आंकड़े हैं जो आपको विस्मित कर के रख देंगे. तो क्या आमिर जी किसी अगले एपिसोड में इस समस्या को ले कर भी प्रकट होंगे? या यह महिला संगठनों द्वारा किये जाते रहे और दिन-ब-दिन बढते एक ऐसे प्रचार/दुष्प्रचार की तरह हो कर रह जायेगा, जिस के हासिल में कुछ पत्नियों की सुरक्षा के साथ बहुत सारे पुरुषों और बहुत सारी महिलाओं के साथ झूठे प्रकरणों में फँस कर खत्म हो जाने और भारतीय परिवार के अंत की दिशा में जाने से अधिक कुछ नहीं है? 

मेरे विचार में आमिर के कार्यक्रम का सन्देश पूर्ण तो तब होता जब वे दहेज लेने और देने का विरोध करने के साथ साथ पत्नियों की सुरक्षा के लिए बने उत्पीड़न और दहेज संबंधी कानूनों के दुरूपयोग और झूठी शिकायत कर के ससुराल वालों को प्रताड़ित करने के चलन से भी तौबा करने की बात कहते. आशा करता हूँ कि इन १३ एपिसोडों में से एक ऐसा होगा जो, तीसरे एपिसोड के अर्ध-सत्य को पूर्ण करेगा, क्योंकि यह भी इतनी ही गंभीर समस्या बन गयी है. मुझे इंतज़ार रहेगा, और मैं इस विषय में अपनी अगली किसी पोस्ट में विस्तृत चर्चा का प्रयास करूँगा.

आवश्यकता केवल पत्नियों को सुरक्षित करने की नहीं है, पूरे परिवार को सुरक्षित करने की है, जिस में पति भी आते हैं और बच्चे भी. यदि हम स्वस्थ वातावरण में परिवार चलाने के प्रयासों के लिए प्रयत्न नहीं करेंगे, केवल पत्नियों को ही सदा सही और उनके कथन को परम सत्य मान कर चलेंगे और यही मानते हुए कानून बनायेंगे और चलाएंगे, तो याद रहे कि इस सब से एक पत्नी को बदला ले लेने की संतुष्टि शायद मिल जाती हो, और कुछ झूठे और लालची लोगों को विपरीत पक्ष से कानूनी फौजदारी के द्वारा मुफ्त की पैसा उगाही करने का मौका मिल जाता हो, पर एक परिवार के पति और बच्चे भी कलह की भेंट चढ़ते हैं और पूरा परिवार ऐसे तबाह हो जाता है कि उस का वापस बस पाना, सुखी रह पाना असंभव हो जाता है. एकतरफा प्रयासों से हमारा समाज नहीं बचेगा. अर्ध-सत्य से बचें, क्योंकि कहीं नहीं कहा गया है – अर्ध-सत्यमेव जयते!



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