Saturday, September 18, 2010

क्या विदेशों से भारत लौटते गुरुजन स्वदेश में टिक पाएंगे?

पिछले दिनों खबर पढ़ने को मिली कि 'देश के शीर्ष तकनीकी शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों की कमी को पूरा करने का रास्ता सहज हो गया है. पीएचडी करके विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे शिक्षक बड़ी संख्या में भारत लौट रहे हैं. अकेले आई.आई.टी. कानपुर से ही ऐसे लगभग तीन दर्जन शिक्षक जुड़े हैं.' (पूरी खबर यहाँ पढ़ें)


बात पर गौर किया जाए तो वास्तव में गुरुजन लौटे नहीं हैं क्योंकि उपरोक्त नियुक्तियों में से अधिकाँश संविदा के आधार पर होंगी. वैसे भी आई.आई.टी. में अभी इन नियुक्तियों को पूर्णकालिक करने के विषय में अभी विचार होना शेष है. आप्रवासी भारतीय शिक्षकों द्वारा इन अल्पकालिक नियुक्तियों को स्वीकार किये जाने पर अभी से अधिक प्रसन्न होना अपरिपक्वता होगी. ऐसी बात कदापि नहीं है कि केवल अग्रिम वेतनवृद्धि देख कर और देशप्रेम के कारण ये गुरुजन वापस लौटे होंगे. वे भी अभी अपने नए नियोक्ताओं, अपने कार्य-वातावरण और भारत में उनके व उनके परिवार के रहन-सहन पर विचार और चिंतन अवश्य करेंगे.  पहली बात तो यह है कि जीवन की जो गुणवत्ता और स्तर इन शिक्षकों का विदेशों में था वह इन्हें भारत में नहीं मिलने वाला है क्योंकि दैनंदिन सुविधाओं के मामले में अभी भी हमारे देश को बहुत आगे जाना है.


इस सब के साथ ही एक महवपूर्ण तथ्य यह है कि विदेशों में उद्योग और शैक्षणिक संस्थान एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिला कर कार्य करते हैं. उद्योग-जगत अपनी आवश्यकताओं और समस्याओं के विषय में शैक्षणिक संस्थानों से सतत विचार-विमर्श करता रहता है और इस विषय में समाधान खोजने के लिए आवश्यक शोध के लिए संस्थानों को अपार धनराशि उपलब्ध करवाता रहता है. संस्थान भी इस धनराशि का उपयोग छात्रों को शोध में लगाए रखने के लिए करते हैं. आई.आई.टी. और कुछ विशिष्ट एन.आई.टी जैसे संस्थानों को छोड़ दें, तो शोध का ऐसा माहौल भारत में बहुत कम अन्य स्थानों पर देखने को मिलता है. शोध के स्तर और व्यापकता के मामले में भारत अभी पश्चिमी देशों की तुलना में कोसों पीछे है. यहाँ तक कहा जा सकता है कि भारत में आपको शोध कम, शोध का मजाक और मखौल अधिक देखने को मिलेगा. यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों में भारतीय शोध को विरले ही कभी प्रकाशित होने का अवसर मिलता है. दूसरी ओर, विदेशों में अध्ययन कर रहे भारतीय छात्र या अध्यापन कर रहे भारतीय मूल के शिक्षक इसी शोध की दुनिया में जीते हैं और शोध-जगत को अपना सार्थक और सतत योगदान देते रहते हैं. यह जगत जब उन्हें भारत में प्रायः दुर्दशा की स्थिति में मिलेगा,  तो क्या उत्साह को पोषित रखते हुए वे एक नए शोध अभिविन्यस्त वातावरण की उत्पत्ति करने को तत्पर होंगे? या फिर भ्रम-निवृत्ति होने के पश्चात फिर से उन्हीं पश्चिमी देशों को लौट जायेंगे, जहाँ से वे आये थे?


इसके अलावा भारत में रहने के दौरान इन आप्रवासियों का जब हर स्तर पर चाय-पानी और जेब गरम करने के सत्य से सामना होगा, तब देखना होगा कि वे इसे कैसे लेंगे. विदेशों में कैसा भी कार्य करने वाले किसी भी मनुष्य की पगार इतनी तो होती ही है कि वह बहुत आराम से, सपरिवार, सर्वसुविधायुक्त जीवन जी सकता है. यह सबसे बड़ा कारण है कि विदेशों में लोग अपना कार्य ईमानदारी से करते हैं और कम से कम छोटे और रोजमर्रा के मामलों में भ्रष्टाचार देखने में नहीं आता.


इसके विपरीत, हमारे देश में आप किसी भी विश्वविद्यालय, शिक्षण संस्थान या सर्वोच्च संस्थाओं को भर्राशाही, लाल-फीताशाही, राजनीति और भ्रष्टाचार में लिप्त न पायें, तो आश्चर्य होगा. ऐसे तंत्र में वे लोग कैसे फिट होंगे जिन्हें न तो इस सबकी आदत है,  न वे इसके लिए तैयार हैं? जब छोटे छोटे कार्यों के लिए इन्हें अपने कार्य-क्षेत्र और दैनंदिन जीवन में बाबुओं के चक्कर लगाने पड़ेंगे, तब उनका कितना देशप्रेम और देशसेवा का प्रण बचेगा, यह देखने की बात होगी. उन गुरुजनों के अलावा उनके परिवार के अन्य सदस्यों को भी इस सब से दो-चार होना ही पड़ेगा. वे जिस देश से भारत आयेंगे,  सफाई और प्रदूषण-स्तर के मामले में भी वह देश हमारे देश से कहीं बेहतर ही होगा. कुल मिला कर बात यह है कि इन परिस्थितियों में भी टिक कर लंबी पारी खेलने वाले गुरुजनों की संख्या बहुत अधिक नहीं होगी, ऐसा मेरा अंदेशा है.


वर्चुअल क्लास या ई-लर्निंग अवश्य शिक्षकों की कमी दूर करने की दिशा में एक समाधान हो सकता है, पर इस में वह बात आ पायेगी जो कि एक प्रत्यक्ष शिक्षक की कक्षा में आ पाती है, ऐसा मुझे नहीं लगता. यह केवल एक कमजोर विकल्प ही हो सकता है, उस से अधिक कुछ नहीं.


वास्तव में आवश्यकता है अपने ही देश में शिक्षण को आकर्षक और लाभप्रद व्यवसाय बनाने की. पिछले बहुत से वर्षों से शिक्षण को अधिकाँश शिक्षकों ने या तो तदर्थ व्यवसाय के रूप में लिया है, (जिससे बचने वाले समय का सदुपयोग वे दूसरी प्रतिस्प्रधात्मक परीक्षाओं की तैयारी के लिए करते हैं), अथवा विकल्पहीनता की स्थिति में उसे मन मार कर अपनाया है. मैं स्वयं १००० से अधिक छात्रों को इंजीनियर बना चुका हूँ, पर उनमें से मैं ऐसे दस भी नहीं निकाल सका, जिनका ध्येय सदा से अध्यापन रहा हो. मेरे अच्छे से अच्छे या साधारण छात्रों में से भी कोई नहीं निकलता था जो अध्यापन को ह्रदय से अपनी जीवन-वृत्ति बनाना चाहता था. अच्छे और बुद्धिमान छात्रों को शिक्षण जगत अपनी ओर आकर्षित न कर सका, और औसत और साधारण लोग इस व्यवसाय में भरते चले गए. यह भी एक कारण है कि शिक्षण जगत बहुत से ऐसे शिक्षकों से भरा पड़ा है जो सुरक्षित नौकरी और अपने आरामतलब रवैये के चलते कूप-मंडूक हो कर रह गए. इन शिक्षकों ने कभी भी अपने ज्ञान को बढ़ाते हुए, बदलते हुए समय और तकनीकों के साथ बदलती हुई तकनीकी शिक्षण की आवश्यकताओं के अनुरूप स्वयं को अद्यतन रखने का प्रयास नहीं किया. फलस्वरूप ऐसे बहुत से शिक्षक न केवल अप्रासंगिक हो कर रह गए हैं, अपितु यदा-कदा अपने छात्रों के परिहास का भी कारण बनते रहते हैं. ऐसे शिक्षक अपने छात्रों को कैसा और किस स्तर का ज्ञान दे पाते होंगे, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है. फिर, बहुत से शिक्षक ऐसे भी हैं, जो समय के साथ तंत्र की लाल-फीताशाही, भ्रष्टाचार और व्याप्त राजनीति आदि को देखते हुए कुंठित होते चले गए. कुंठित शिक्षकों से भी आप कैसी शिक्षा की अपेक्षा रखते हैं?  कुल मिलाकर यह समझना कठिन नहीं है कि शिक्षण जगत की सबसे बड़ी समस्याएँ क्या हैं.


अवसर की कमी या परिस्थितियों से समझौता कर के शिक्षण व्यवसाय में आने वाले मैं ने बहुत देखे हैं. फिर वे कभी बाहर न निकल पाए इसलिए इसी क्षेत्र में रह गए. मैं अपने बुद्धिमान छात्रों को यह व्यवसाय न चुनने के लिए गलत भी नहीं ठहरा सकता हूँ. भारत में २० वर्षों तक अध्यापन करने के बाद भी एक औसत इंजीनियरिंग शिक्षक जितना धन जायज तरीकों से बना पाता है, उससे दो गुना या अधिक धन उसके द्वारा पढ़ा कर ताजा निकाला छात्र अपनी नौकरी के दूसरे वर्ष में कमाने लगता है. क्या यह एक अति-विषम विसंगति नहीं है? मेरे विचार में तो है, और यदि भारत के शीर्षस्थ योजनाकारों और शासन ने इस समस्या को गंभीरता से ले कर सुलझाने के प्रयास तुरंत नहीं किये, तो आज जो शिक्षकों का अकाल स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर है, वह एक विकराल समस्या का रूप धारण करेगा.


तो, इस समस्या का समाधान क्या है? चाहे जो कहा जाए, धन से बड़ा व्यावसायिक उत्प्रेरक और कोई नहीं होता है. इसलिए, यदि हम चाहते हैं कि हमारे सबसे बुद्धिमान और होनहार छात्र शिक्षण की ओर आकर्षित हों और उसे व्यवसाय के रूप में ह्रदय से स्वीकार करने के विषय में सोचने को उद्यत हो, तो हमें इस व्यवसाय के साथ सम्माननीय स्तर के वेतन को जोड़ना होगा. यह सम्माननीय स्तर ऐसा होना चाहिए कि इसे प्राप्त करने के लिए सबसे अच्छे और बुद्धिमान छात्रों में प्रतिस्पर्धा रहे. शिक्षा और शोध के क्षेत्र से हमें भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, लाल-फीताशाही इत्यादि रोगों का निराकरण और समूल-नाश करना होगा. हमें वास्तविक और गुणवत्तापूर्ण शोध के वातावरण का निर्माण करना होगा, और शिक्षकों का समाज में खोया हुआ स्थान उन्हें वापस दिलाना होगा. इसके बिना शिक्षा जगत का कल्याण संभव नहीं है, ऐसा मेरा सोचना है.


(इस लेख को रायपुर, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाले "आज की जनधारा" दैनिक ने अपने 15 सितम्बर 2010 के सम्पादकीय में स्थान दिया है.)

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